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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १३५ के अनुसार भगवान् महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम वेद-बेदांगमें पारंगत थे किन्तु उन्हें जीवके विषयमें सन्देह था और उसी सन्देहको दूर करनेके लिए वह भगवान् महावीरके समीप गये और उनके शिष्य बन गये।
आवश्यक नियुक्तिमें भगवान् महावीरके ग्यारह गणधरोंके द्वारा भगवान् महावीरके पास जाकर अपनी शंका निवृत्ति करके उनके शिष्य बननेका कथन विस्तारसे किया है। उन गणधरोंके मनमें जिन विषयोंको लेकर शंकाएं थीं वे इस प्रकार है
१. जीव', २. कर्म, ३. जीव और शरीरका ऐक्य, ४. भूत, ५. इस भव और परभवका सादृश्य, ६. बन्ध और मोक्ष, ७. देव, ८. नारकी, ९. पुण्य और पाप, १०. परलोक और ११. निर्वाण ।
भगवान् महावीरने इन सभी शंकाओंका समाधान किया। ये सभी विषय अध्यात्मसे सम्बद्ध है। जीव अथवा अथवा आत्माको शरीर और भूतोंसे भिन्न एक स्वयं सिद्ध अविनाशी तत्त्व मान लेने पर उसका कर्मसे सम्बन्ध और उससे छुटकारेका प्रश्न उपस्थित होना स्वाभाविक है। उसीके साथ शेष बातें भी सम्बद्ध हैं । अतः तात्त्विक जैन ग्रन्थोंमें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सँवर, निर्जरा, मोक्ष तथा पुण्य और पाप इन नौ पदार्थों के श्रद्धान और ज्ञानको ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान कहा है और उन्हें तत्त्वार्थ संज्ञा भी दी हैं। अर्थात् ये ही तत्त्वभूत अर्थ हैं जिनको जानना मोक्षार्थीके लिये आवश्यक है। जो इन्हें नहीं जानता वह सारभूत वस्तु तत्त्वको नहीं जानता। __ इन नौ पदार्थोंके मूलमें दो ही तत्त्व है-एक जीव और एक अजीव । इन दोनोंके मिलन और छुटकारेको लेकर ही शेष तत्त्व उत्पन्न हुए । नौ पदार्थोंका विवेचन
__ जैन दर्शनमें मुलतत्त्व दो ही माने गये हैं-एक जीव और एक अजीव । जीव चैतन्य स्वरूप है। चैतन्य अथवा चेतनाके दो प्रकार हैं-ज्ञान और दर्शन । अतः ज्ञानदर्शन स्वरूप चैतन्यमय जीव है । वह जीव अथवा आत्मा अपने शरीर प्रमाण है। जिस शरीरमें वह बसता है उसीमें व्याप्त होकर रहता है । तथा वह कर्मोंका कर्ता भी है और उनके फलका भोक्ता भी है। यद्यपि वह अमूर्तिक है किन्तु जड़ कर्मोसे संसार अवस्थामें संयुक्त होनेसे मूर्तिक कहा जाता है।
१. 'जीवे कम्मे तज्जीव, भूअ, तारिसय बंध मुक्खे य ।
देवा नेरइया वा पुन्ने परलोज निव्वाये ॥५९६॥-आ० नि० ।