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१३४ : जेनसाहित्यका इतिहास जानते हो सो बतलाओ । नारद जी बोले-भगवन् ! मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद
और चौथा अथर्ववेद जानता हूँ। इनके सिवाय इतिहास पुराणरूप पांचवा वेद, व्याकरण, गणित, निधिशास्त्र, तर्क शास्त्र, नीति, देवविद्या ब्रह्मविद्या आदि सब जानता हूँ । किन्तु मैं केवल मन्त्रवेत्ता हूँ आत्मवेत्ता नहीं हूँ। मैंने सुना है कि आत्मवेत्ता शोकको पारकर लेता है परन्तु मैं शोक करता हूँ। मुझे शोकसे पारकर दीजिये। तब सनत्कुमार जीने कहा-तुम जो कुछ जानते हो वह केवल नाम है । लब नारदने पूछा-भगवन् क्या नामसे भी अधिक कुछ है । नारद जी इस तरह पूछते गये और सनत्कुमार जी उत्तर देते गये । अन्तमें जाकर सनत्कुमारजीने कहा-आत्मदर्शनसे ही सबकी प्राप्ति हो जाती है। ____ इस तरह मंत्रवेत्ता ब्रह्मर्षियोंका ज्यों-ज्यों आकर्षण राजर्षियोंकी आत्मविद्याकी ओर बढ़ता गया त्यों-त्यों उनकी यज्ञोंके प्रति अरुचि भी बढ़ती गई। इसका उदाहरण मुण्डकोपनिषद् में देखनेको मिलता है । उसमें यज्ञरूप अट्ठारह नौकाओंको अढ़ बतलाते हुए कहा है कि 'उनके द्वारा संसार समुद्रसे पार होना तो दूर रहा, इस लोकके वर्तमान दुःखरूप छोटी-सी नदीको पार करके स्वर्ग तक पहुँचनेमें भी सन्देह है। जो मूर्ख लोग उन्हें ही कल्याणका मार्ग समझ कर उनकी प्रशंसा करते हैं वे वारम्बार, जरामरणको प्राप्त होते हैं।'
इसीसे उपनिषदोंको वेदान्त भी कहते हैं । उन्होंने एक तरहसे वेदोंका अन्त कर दिया था । उपनिषदोंमें वर्णित अध्यात्मवादको उपनिषदों जितना ही प्राचीन समझ लेना भ्रान्त है उसका स्रोत सुदूरवर्ती भूतकालमेंसे बहता आया है। सिन्धु घाटीसे प्राप्त अवशेष इस बातके साक्षी हैं कि उस समय योगका प्रचार था। योगका अध्यात्मसे सम्बन्ध है। जैनोंकी मान्यताके अनुसार, प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव योग और अध्यात्मके जनक थे। उपनिषदोंके कालमें वाराणसीमें तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ भी योगी थे और उनसे २५० वर्ष बाद हुए भगवान् महावीर ने तो १२ वर्षों तक कठोर तपश्चर्या की थी। ये सब क्षत्रिय थे और उन्हें क्षत्रियोंकी आत्मविद्या उत्तराधिकारके रूपमें प्राप्त हुई थी। जैन शास्त्रों
१. 'प्लवा ह्यते अदृढ़ा यज्ञरूपा अष्टादशोक्तमवरं येषु कर्म । एतच्छे यो येऽभि
वन्दन्ति मूढा जरामृत्युं ते पुनरेवापि यान्ति ॥७॥-मुण्डको । 'बम्हणेण गोदमगोत्तेण सयलदुस्सुदिपारएण जीवाजीवविसयसंदेहविणासणट्ठमुवगमवड्ढमाण-पादमूलेण इदंभूदिणावहारिदो। उत्तं च-गोत्तण गोदमो विप्पो चाउव्वेयसडंगवि । णामेण इदंभूदित्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ॥-पर्ख०, पु० १, पृ० ६४-६५ ।