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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १३३ आया । तब यमराजको उसकी जिज्ञासा शान्त करनी पड़ी । 'न तो यह आत्मा जन्म लेता है और न मरता है । न यह किसीसे उत्पन्न होता है और न किसीको उत्पन्न करता है । यह नित्य और शाश्वत है। शरीरका नाश होनेपर भी उसका नाश नहीं होता । तथा — ' यह आत्मा न तो प्रवचनसे, न बुद्धिसे और न बहुत सुननेसे ही प्राप्त हो सकता है । जो इसके पीछे पड़ जाता है वही उसे प्राप्त कर सकता है ।' अन्तमें यमराज आत्माका स्वरूप इस प्रकार बतलाते हैंअशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथारसं नित्यमगन्धवच्च यत् । अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते ॥१५॥ 'यह आत्मा शब्द रहित है, स्पर्श रहित हैं, रूप रहित है, रस रहित है, गन्ध रहित है, नित्य, अविनाशी, अनादि और अनन्त है । उसे जानकर मनुष्य मृत्युके मुखसे छुटकारा पा जाता है' । छान्दोग्य उपनिषद प्राचीनतम उपनिषदोंमें माना जाता है । इसमें भी आत्मजिज्ञासा विषयक अनेक संवाद हैं । जिनसे प्रकट होता है कि उस समय तक वैदिक ऋषि आत्माको नहीं जानते थे । और उसके जाननेके लिये वे क्षत्रियोंके पास जाते थे । 1 तृतीय खण्डमें लिखा है कि आरुणिका पुत्र श्वेतकेतु पञ्चालदेशीय जनोंकी सभामें गया । उससे जीवलके पुत्र प्रवाहणने कहा — कुमार ! क्या पिताने तुझे शिक्षा दी है । उसने कहा- हाँ, भगवन् । क्या तुझे मालूम है कि इस लोकसे जानेपर प्रजा कहाँ जाती है ? नहीं, भगवन् ! क्या तू जानता है कि वह फिर इस लोकमें कैसे आती है । नहीं भगवन् ! इस तरह पाँच प्रश्नोंका उत्तर वेतकेतुने नहीं में दिया । तब प्रवाहणने उसे फटकारते हुए कहा - तो फिर ऐसा क्यों कहता हैं कि मुझे शिक्षा दी गई है । जो इन बातोंको नहीं जानता वह अपनेको शिक्षित कैसे कह सकता है ? तब बेचारा श्वेतकेतु अपने पिताके पास आया । पिताने सब बातें सुनकर कहा- इन प्रश्नोंका उत्तर तो मैं भी नहीं जानता । तब उसका पिता राजा जैवलि के पास गया और कहा कि आपने मेरे पुत्रके प्रति जो बात प्रश्न रूपसे कही थी वहीं मुझे बतलाइये । तब राजाने ऋषिसे कहा — गौतम, पूर्वकालमें तुमसे पहले यह विद्या ब्राह्मणोंके पास नहीं गई । इसीसे सम्पूर्ण लोकोंमें इस विद्याके द्वारा क्षत्रियोंका ही अनुशासन होता रहा है । दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि आत्मविद्याके सामने वेदविद्याका महत्त्व उस समय मर चला था । सप्तम अध्यायमें लिखा है कि नारद जी सनत्कुमारजी के पास गये और बोले—मुझे उपदेश दीजिये । सनत्कुमार जीने कहा- तुम क्या
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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