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________________ १३२ : जनसाहित्यका इतिहास अधिक होता आया है, प्राचीन समय में उनके पढ़नेके लिये टीकाएं भी आवश्यक नहीं थीं। छप्पाहुड़ पर सम्भवतया एक ही टीका लिखी गई है, जो उपलब्ध है और जिसके रचयिता श्रुतसागर (वि० १६वीं शती ) हैं। इसी लिये छप्पाहुडमें यत्र तत्र अपभ्रंश शब्द पाये जाये जाते हैं। अतः डा० उपाध्येने दिगम्बर ग्रन्थोंकी प्राकृत भापाके लिये पिशलके द्वारा सुझाए गये नामको बिल्कुल उपयुक्त माना है और केवल परिवर्तन के लिये उसमें कुछ परिवर्तन करना अनावश्यक बतलाया है। अध्यात्मवादका उद्गम और प्रसार पहले लिख आएँ हैं आचार्य कुन्दकुन्द जैन अध्यात्म और जैन तत्त्वज्ञान दोनों के ही पुरस्कर्ता हैं । और यद्यपि ये दोनों ही विषय द्रव्यानुयोगके अन्तर्गत आते हैं । किन्तु दोनों के दृष्टिकोणमें भेद होनेसे यहाँ दोनोंका पृथक्-पृथक् कथन किया जाता है । मबसे प्रथम अध्यात्मको लेते हैं । आत्माको आधार मानकर जो चिन्तन और आचरण किया जाता है उसे अध्यात्म कहते हैं । आज भारतीय धर्मोंकी ऐसी कोई भी परम्परा उपलब्ध नहीं है जिसमें आत्माको एक या दूसरे नामसे स्वीकार न किया गया हो। वेद जैसे प्राचीनतम साहित्यमें आध्यात्मिक जिज्ञासा और शोधके सूचक उद्गार मिलते हैं प्राचीन उपनिषदोंमें तो आध्यात्मिक जिज्ञासा और विचारणा विविधरूपोंमें मिलती है। पूर्व पीठिकामें उसपर विस्तारसे प्रकाश डाला जा चुका है यहाँ उसका आभास दिया जाता है। कठ उपनिषदमें नचिकेता और यममें संवादके द्वारा आत्माका क्या स्वरूप है, क्या वह मृत्युके बाद जीवित रहता है ? यदि जीवित रहता है तो कहाँ चला जाता है, इत्यादि प्रश्नों पर प्रकाश डाला गया है। आरूणि उद्दालक ऋषिके पुत्र नचिकेता नामक बालकने यमराजके द्वारा प्रदत्त तीसरे वरकी याचना करते हुए कहा येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। . एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥२०॥ 'भगवान्' मृत मनुष्यके सम्बन्धमें यह एक बड़ा सन्देह फैला हुआ है। कुछ लोग तो कहते हैं कि मृत्यु के वाद भी आत्माका अस्तित्व रहता है और कुछ लोग कहते हैं, नहीं रहता । इस विषयमें आप अपना अनुभव बतलाईये' । यमराजने बालक नचिकेताको लौकिक अभ्युदयोंका प्रलोभन देकर उसे आत्मविषयक जिज्ञासासे विरत करना चाहा किन्तु नचिकेता किसी प्रलोभनमें नहीं
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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