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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १३९
बौद्धोंके विज्ञानाद्वैतवाद तथा शून्यवाद भी उनसे अज्ञात नहीं थे । इस स्व-पर समयज्ञता के कारण ही वे जैन तत्त्व ज्ञानका परिमित शब्दोंके द्वारा परिमार्जित शैलीमें निरूपण कर सके और उनका वही निरूपण आगेके लिये आधार शिला बना ।
भाषा - डा० ए० एन० उपाध्येने प्रवचनसारकी अपनी प्रस्तावना के अन्तमें प्रवचनसारकी भाषाके सम्बन्धमें विस्तार से विचार किया है और विभिन्न मतोंकी समीक्षा भी की है ।
कुन्दकुन्दके अन्य ग्रन्थोंकी तरह प्रवचनसारकी भाषा भी प्राकृत है । किन्तु उसमें श्वेताम्बर आगयोंकी अर्ध मागधी भाषाके बहुतसे रूप पाये जाते हैं, और संस्कृतका भी गहरा प्रभाव है, साथ ही उसका पालनपोषण सौरसेनीकी पृष्ठ भूमिमें हुआ है । इससे पिशलने उसे 'जैन सौरसेनी' नाम दिया है । डा० जेकोबी ने श्वेताम्बरोंके आगमोत्तर कालीन साहित्यकी प्राकृतको, जो अर्धमागधी और महाराष्ट्रीका मिश्रित रूप है, जैन महाराष्ट्री कहा है । पिशलका उक्त नामकरण इससे पूर्णतया मेल खाता है । किन्तु कुछ जर्मन विद्वान 'जैन सौरसेनी' नामसे सहमत नहीं हैं । १९२८ में डा० शुत्रिगंने देहलीमें जो भाषण दिया था उसमें उन्होंने अपने एक शिष्यकी 'मूलाचार' तथा अन्य प्रमुख दिगम्बर ग्रन्थोंके सम्बन्धमेंकी गई खोजोंका हवाला देते हुए अन्तमें कहा था कि भविष्य बतलायेगा कि पिशलके द्वारा प्रस्तावित जैन सौरसेनी नाम कहाँ तक उचित है । 'डा० शुब्रिंगके एक शिष्य डा० वाल्टर डेनेक ( Denocke ) ने १९२२ में 'दिगम्बर टेक्सटस्' शीर्षकसे एक महा निबन्ध लिखा था । उसमें डा० डेनेकने वट्टकेरके मूलाचार, कुमारकी कार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा कुन्दकुन्दके छप्पाहुड ( षट् प्राभृत ), समयसार और पञ्चास्तिकाय आदि दिगम्बरीय प्राकृत ग्रन्थोंकी भाषाके सम्बन्ध में चर्चा की है । उनकी चर्चाका एक मात्र विषय इन ग्रन्थोंकी भाषा है । और उसमें उन्होंने जो उदाहरण दिये हैं वे अधिकतर षट् प्राभृतसे लिये गये हैं । उन्होंने लिखा है कि इन ग्रन्थोंकी भाषा अर्धमागधी, जैन महाराष्ट्री और शौरसेनीसे प्रभावित है । उन्होंने जो उदाहरण दिये हैं उनमें से कुछ उदाहरणोंसे वह संस्कृतके प्रभावको भी स्वीकार करने में आगा पीछा नहीं कर सकेंगे । उन्होंने छप्पाहुड तथा कार्तिकेयानुप्रेक्षासे कुछ अपभ्रंश रूप दिये हैं, किन्तु प्रवचनसारसे उन्होंने एक भी अपभ्रंश शब्दका उदाहरण नहीं दिया । डा० उपाध्येके मतानुसार अकेले कुन्दकुन्दके छप्पाहुडमें अपभ्रंश शब्दोंका अधिक रूपमें पाये जानेका कारण यह है कि छप्पाहुड़ सरल हैं अतः उसका पठन पाठन
१. पृ० १२१ - १२३ ।