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________________ १३० : जैन साहित्यका इतिहास कर्मपाहुड, १८. क्रियासारपाहुड, १९. क्षपणा (सार) पाहुड, २० लब्धि (सार) पाहुड, २१. लोयपाहुड, २२. नयपाहुड, २३. नित्यपाहुड, २४. नोकम्मपाहुड, २५. पंचवर्गपाहुड, २६. पयड्ढपाहुड, २७. पयपाहुड, २८. प्रकृतिपाहुड, २९. प्रमाणपाहुड, ३०. सलमीपाहुड, ३१. संथानपाहुड, ३२. समवायपाहुड, ३३. षट्दर्शनपाहुड, ३४. सिद्धान्तपाहुड, ३५. सिक्खापाहुड, ३६. स्थानपाहुड, ३७. तत्त्व (सार) पाहुड, ३८. तोयपाहुड, ३९. ओघातपाहुड (?), ४० उत्पादपाहुड, ४१. विद्यापाहुड, ४२. वस्तुपाहुड, ४३ विहिय या विहयपाहुड । उद्देश्य तथा शैली - आचार प्रधान जैन परम्परामें अंगज्ञानके उत्तराधिकारी श्रमण ही होते थे । संसारसे विरक्त श्रमण रात-दिन ध्यान और अध्ययनमें ही तल्लीन रहते थे । उनमें ज्ञानके अर्जन तथा संरक्षणकी प्रवृत्तिका बाहुल्य था । वैदिक परम्परामें जो कार्य ब्राह्मणों का था वही कार्य जैन परम्परामें श्रमणों का था । आत्मार्थी मुमुक्षु श्रमण शास्त्राभ्यासके द्वारा एक ओर आत्मकल्याण करते थे और दूसरी ओर श्रुतकी रक्षा करते थे । उन्हीके द्वारा श्रावक और श्राविकाओंको भी आचार और विचार विषयक बोध प्राप्त होता था । कुन्दकुन्दाचार्यने अपने ग्रन्थोंकी रचना प्रधान रूपसे श्रमणोंको लक्ष्यमें रखकर उन्हींके उद्देशसे की है । उनके द्वारा रचित पाहुड श्रमणाचार विषयक शिक्षासे ओतप्रोत हैं । श्रमणोंके सम्बन्ध में कुन्दकुन्दने जितना लिखा है और जितना खुलकर प्रमादी श्रमणोंकी आलोचना की है, किसी दूसरे ग्रन्थकारने न उतना लिखा है और न उतनी खुलकर आलोचना की है । पाहुड, और मोक्खपाहुड तो उसीसे भरे हैं । समयसार और श्रमणोंको तत्त्व ज्ञानका बोध करानेके लिये ही रचे गये हैं । सुत्तपाहुड, भावप्रवचन सार भी कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी शैली सरल और स्पष्ट है उसमें दुरूह जैसी बात नहीं है । उन्होंने जो कुछ कहा है बहुत सीधे सादे शब्दों में कहा है । जैन अध्यात्म का मुकुटमणि समयसार उसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । अध्यात्म जैसे विषयका प्रतिपादन विविध दृष्टान्तोंके द्वारा इतनी सुगम रीतिसे किया गया है कि मोटीसे मोटी बुद्धि वाला भी उसे आसानीसे समझ सकता है । वह माताके दूधकी तरह सुपाच्य और अविकारी है । उसके अवलोकनसे आचार्य कुन्दकुन्दकी अगाध विद्वत्ता किन्तु सुगम प्रतिपादन शैलीका स्पष्ट परिचय मिलता है । प्रवचनसारका वस्तु निरूपण अवश्य ही तर्क प्रधान शैलीको लिये हुए है । किन्तु फिर भी दुरूह नहीं है । जहाँ समयसारसे उनके सांख्य दर्शन और उपनिषद् विषयक पाण्डित्यका पता चलता है वहाँ प्रवचनसारसे ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्द न्याय-वैशेषिक दर्शनके भी पण्डित थे । और
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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