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________________ १२८ : जेनसाहित्यका इतिहास कुन्दकुन्दान्वयके साथ देसियगण तथा उसके आचार्योंका नाम पीछेसे जोड़ दिया गया हो, यह संभव है । मर्कराके पश्चात् शक सम्वत् ७१९ और ७२४ ( वि० सं० ८५४ और ८५९ ) के ताम्रपत्रोंमें कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख मिलता है । यह वही ताम्रपत्र हैं जिनके आधार पर डा० पाठकने कुन्दकुन्दका समय शक सम्वत् ४५० के लगभग माना है । उधर मर्करासे प्राप्त ताम्रपत्र ( ९४ ) में चन्द्रनन्दिको मूलसंघका बतलाया है । यह वही चन्द्रनन्दि है जिसे ताम्रपत्र ( ९५ ) में कुन्दकुन्दान्वयका बतलाया है । अतः कुन्दकुन्दान्वय और मूलसंघका निर्देश लगभग समकालीन मिलता है । एक ताम्रपत्रमें चन्द्रनन्दिको मूलसंघका बतलाना और दूसरेमें कुन्दकुन्दान्वय का बतलाना ( जिसकी स्थिति अभी सुनिश्चित नहीं है किन्तु संभाव्य है ) कुन्दकुन्दान्वय और मूलसंघको समानार्थक नहीं तो परस्परमें सम्बद्ध अवश्य प्रकट करता है । बट्टराचार्य विरचित मूलाचारका उल्लेख तिलोयपण्णत्ति ( ८ ५३२ ) में पाया जाता है । मूलाचारका मतलब मूलसंघका आचार होता है । अतः उसकी रचनासे पूर्व अवश्य ही मूलसंघ स्थापित हो चुका था । मूलसंघका मूल आचार मुनियोंके अट्ठाईस मूल गुण और नग्न दिगम्बरत्व है । उसीका प्रतिपादन और समर्थन सबसे प्रथम कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें मिलता । अतः कुन्दकुन्दान्वयकी तरह यदि मूलसंघके उद्गमके प्रधान कुन्दकुन्द रहे हो तो वह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे स्वीकार करनेमें कोई बाधा हो । ग्रन्थ रचना - ऐसी किम्वदन्ती है कि कुन्दकुन्दाचार्यने ८४ पाहुड़ोंकी रचनाकी थी । 'पाहुड़' शब्द प्राचीन द्वादशांगसे सम्बद्ध है । बारहवें अंग दृष्टिवाद के अन्तर्गत चौदह पूर्वोमें 'पाहुड' नामक अवान्तर अधिकार थे । जैसे 'महाकर्मप्रकृति पाहुड' अथवा ' कसायपाहुड' । इनमेंसे पहला महाकर्मप्रकृति पाहुड द्वितीय अग्रायणीय पूर्वके अन्तर्गत था उसीसे षट्खण्डागमकी उत्पत्ति हुई है । तथा दूसरा कसायपाहुड ज्ञान प्रवाह नामक पाँचवें पूर्वके अन्तर्गत दसवें वस्तु-अधिकारमें तीसरा पाहुड़ था । उसीको गुणघराचार्यने कसायपाहुडमें उपसंहृत किया । आचार्य कुन्दकुन्दने भी अपने ग्रन्थोंका नाम 'पाहुड़ान्त' रखा है । जैसे उन्होंने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य घोषित करके न केवल उनके प्रति अपनी गहरी आस्थाको प्रकट किया है बल्कि इस बातको भी प्रमाणित किया है कि उन्हें गुरु परम्पराोंसे श्रुतका जो ज्ञान प्राप्त हुआ था वह श्रुत
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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