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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १२७ लिये बदणेगुप्पे नामका सुन्दर गाँव दानमें प्राप्त कर अकालवर्ष पृथ्वी बल्लभके मंत्रीने संवत्सर ३८८ के माघ महीने की शुक्ल पंचमी सोमवारको स्वातिनक्षत्रके समय इसे भेंट किया। इस ताम्रपत्रमें संवतका नाम नहीं दिया गया है, लेखका परिचय देने वाले वर्जेस महोदयने लेखके सम्बत्को विल्सन साहबके मेकेन्जी कलेक्शनके आधार पर शक सम्बत् माना है किन्तु ज्योतिष शास्त्रके आधार पर उक्त संबत् के दिन और नक्षत्रको ठीक नहीं बतलाया। तथा कुछ ऐतिहासिक अनुपपतियां भी हैं। अतः उसे असली माननेमें सन्देह किया जाता है । किन्तु नोणमंगलसे प्राप्त ताम्रपत्र (९४) में उक्त वंशपरम्पराके साथ कोंगुणिवर्मा अपर नाम अविनीतके द्वारा अपने कल्याणके लिये अपने बढ़ते हुए राज्य के प्रथम वर्षकी फाल्गुन सुदी पंचमीको, अपने उपाध्याय परमहित विजयकीर्तिकी सम्मतिसे मूलसंघके चन्द्रनन्दि आदिके द्वारा प्रतिष्ठापित उरनूरके जैनमन्दिरको दान देनेका निर्देश है। मर्कराके ताम्रपत्रमें भी अविनीतने चन्द्रनन्दि भटारको दान दिया है और उस चन्द्र नन्दिको मूलसंघका बतलाया है। किन्तु मर्कराके ताम्रपत्रमें उसे कुन्दकुन्दान्वय तथा देसियगणका बतलाया है। डा० गुलाबचन्द्रने लिखा है कि कोण्डकुन्दान्वयके साथ देशीयगणका सर्वप्रथम प्रयोग लेख नं० १५० ( सन् ९३१ में) हुआ है और मर्कराके ताम्रपत्रमें अविनीतके साथ अकाल वर्षके मंत्रीका उल्लेख है। अकाल वर्ष राष्ट्रकूट नरेश था। इस परसे अनुमान किया जाता है कि मकराके ताम्रपत्रको उक्त राजाके कालमें पुनः लिखा गया तभी उसमें कुन्दकुन्दान्वयके साथ देशीयगणके आचार्योंके नाम लिख दिये गये हैं। किन्तु मूल ताम्रपत्र प्राचीन हैं। और उसमें कुन्दकुन्दान्वयका निर्देश भी होना संभव है। क्योंकि कुन्दकुन्दाचार्य विक्रमकी दूसरी तीसरी शताब्दीमें हो गये हैं और कोण्डकुन्दपुरके निवासी होनेके कारण ही वह कुन्दकुन्दाचार्य नामसे ख्यात हुए । यद्यपि अरुङ्गलान्वय, श्रीपुरान्वय, और कित्तूरान्वयकी तरह कुन्दकुन्दान्वयका भी अर्थ कुण्डकुन्दपुरसे निकला मुनिवंश किया जा सकता है, किन्तु उत्तरकालमें कुन्दकुन्दाचार्यका प्रयोग जिस रूपमें पाया जाता है और प्रायः सभी आचार्य परम्परायें अपनेको कुन्दकुन्दान्वयी बतलाती हैं उससे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्दान्वयका अर्थ आचार्य कुन्दकुन्दका अन्वय लिया गया है। और इसी अर्थमें उसका प्रयोग हुआ है। अतः मर्कराके मूल ताम्रपत्रमें यदि कुन्दकुन्दान्वयका उल्लेख रहा हो तो वह कोई असंगत नहीं है। हाँ १. जै० शि० सं०, भा० ३, प्रस्ता० पृ० ४७ आदि । २. जै०शि० सं०, भा॰ २, पृ० ६० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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