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१२६ : जेनसाहित्यका इतिहास थे। इससे प्रकट होता है कि कुन्दकुन्द केवल यतिवृषभके ही पश्चात् नहीं हुए किन्तु यतिवृषभके चूर्णिसूत्रों पर उच्चारणा वृत्ति रचनेवाले उच्चारणाचार्यके भी पश्चात् हुए हैं।
चूर्णिसूत्रोंके रचयिता आचार्य यतिवृषभके समयके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है। वर्तमानमें जो तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ उपलब्ध है उसके रचयिता भी यतिवृपभ ही थे । किन्तु उसमें कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंकी बहुत सी गाथाएं ज्योंकी त्यों पाई जाती हैं। उसके सम्बन्धमें भी पीछे लिखा जा चुका है। वे गाथाएँ ति० प० में कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंसे ली गई हैं । चूकि ति०प० अपने मूलरूपमें उपलब्ध नहीं है, पीछेसे उसमें मिश्रण हुआ है तथापि उसमें जो भगवान महावीरके निर्वाण काल से लेकर एक हजार वर्ष तककी राजकाल गणना पाई जाती है उससे यह स्पष्ट है कि विक्रम सम्बत्की छठी शताब्दीसे पूर्व उसकी रचना नहीं हुई। जब कि कुन्दकुन्द उससे पहले हो चुके थे, यह निश्चित है। अतः ति० प० के देखनेसे तो यतिवृषभ कुन्दकुन्दके पश्चात् हुए हैं यही निश्चित होता है। किन्तु यतिवृषभ ने कसायपाहुडका अध्ययन आर्यमंक्षु और नागहस्तीसे किया था । श्वेताम्बर पट्टावलीके अनुसार नागहस्तीका समय वीरनिर्वाणकी सातवीं शताब्दी है। अतः चूणिसूत्रकार यतिवृषभ कुन्दकुन्दके समकालीन सिद्ध होते हैं । इसलिये जहाँ तक गुणधर रचित कसायपाहुंडकी कुन्दकुन्दको प्राप्ति होनेका प्रश्न है वहाँ तक तो उसमें कोई बाधा नहीं है। चूर्णिसूत्रोंकी प्राप्ति भी संभव हो सकती है, किन्तु उच्चारणा वृत्ति वाली बात तो संगत प्रतीत नहीं होती। उच्चारणाचार्यका समय यद्यपि अनिर्णीत है तथापि वह यतिवृषधके समकालीन ज्ञात नहीं होते। क्योंकि वीरसेन स्वामीने यद्यपि उच्चारणाचार्यकी वृत्तिके आधार पर ही जयधवला. टीकाकी रचना की है तथापि उन्होंने चूणिसूत्रोंकी तरह उच्चारणाको कषायप्राभृतका अंगभूत नहीं माना । अतः कुन्दकुन्दका उक्त समय यतिवृषभकी दृष्टिसे भी उचित ही प्रतीत होता है । ___ कुन्दकुन्दान्वय और मूलसंघ
कुन्दकुन्दान्वयका सबसे प्राचीन उल्लेख मर्करासे प्राप्त ताम्रपत्र' (९५) में मिलता है। इसमें गंगवंशी नरेश कोगुणि प्रथमसे लेकर अविनीत तककी वंशावली दी गई है । और लिखा है कि अविनीत महाराजसे देसिग (देसीय) गण कोण्ड कुन्द अन्वयके गुणचन्द्र भटारके शिष्य अभयनन्दि भटार, उनके शिष्य शीलभद्र भटार, उनके शिष्य जयणन्दि भटार, उनके शिष्य गुणनन्दि भटार, उनके शिष्य चन्द्रणन्दि भटारको तलवन नगरके श्री विजय जिनालयके मन्दिरके
१. जै० शि० सं०, भा॰ २, पृ० ६३ ।