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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १२३ तया पट्टासीन होनेसे पहले उन्होंने इस ग्रन्थका निर्माण किया होगा । ६१४ से ६३३ वर्ष तक वह पट्टासीन रहे । उसके पश्चात् ३० वर्ष तक पुष्पदन्त और पुष्पदन्तके पश्चात् बीस वर्ष तक भूतवली पट्टासीन रहे । धवलाके अनुसार धरसेनने अपना अन्तिम समय निकट जानकर महाकर्म प्रकृति प्राभृतके विच्छेदके भयसे दो मुनियोंको बुलवाकर उन्हें महाकर्म प्रकृति प्राभृत पढ़ाया था । और उसके पश्चात् वे दोनों मुनि पुष्पदन्त और भूतवली नामसे ख्यात हुए। उनमें से पुष्पदन्त तो विशति प्ररूपणाके सूत्रोंका निर्माण करनेके पश्चात् स्वर्गवासी हुए और शेष षट्खण्डागमकी रचना भूतवलिने की । अतः वीरनिर्वाणसे ६३० वर्षके पश्चात् धरसेनाचार्यने उन्हें बुलवाकर महाकर्म प्रकृति प्राभृत पढ़ाया होगा । उसके पश्चात् ही षट्खण्डागमकी रचना होना संभव है । पुष्पदन्त और भूतबलिकी कालावधिको दृष्टिमें रखते हुए वीरनिर्वाण ६५० के पश्चात् षट्खण्डागमकी उत्पत्ति हुई होगी । अतः वीरनिर्वाणकी सातवीं शताब्दीके तीसरे चरणमें षट्खण्डागमकी रचना की परिसमाप्ति होना संभव प्रतीत होता है । इसके पश्चात् ही कुन्दकुन्दका होना सम्भव है । किन्तु धवलामें दी गई षट्खण्डागमकी उत्पत्तिकी कथासे धरसेनके पश्चात् तीस वर्ष तक पुष्पदन्तका जीवित रहना संभव प्रतीत नहीं होता । क्योंकि धरसेनसे महाकर्म प्रकृति प्राभृतका अध्ययन करके वर्षा काल तो दोनों ने अंकलेश्वरमें बिताया था । उसके पश्चात् पुष्पदन्ताचार्य वनवास देशको चले गये थे और उन्होंने जिनपालितको दीक्षा देकर विशति सूत्रोंकी रचना करके तथा उसे पढ़ाकर भूतबलीके पास भेज दिया था और जिनपालितसे उन्हें भूतबलीको यह ज्ञात हो गया था कि पुष्पदन्त अल्पायु है अतः उन्होंने तत्काल ग्रन्थ रचना कर डाली थी । अतः वीरनिर्वाण सम्वत् ६३० के लगभग यदि भूतबली पुष्पदन्तने महाकर्म - प्रकृति प्राभृतका पढ़ा था तो षट्खण्डागमकी रचना ६५० के लगभग हो जाना ही अधिक सम्भव प्रतीत होता है । सरस्वती गच्छकी पट्टावली भद्रबाहु द्वितीयसे शुरू होती है । यह भद्रबाहु द्वितीय वही जान पड़ते हैं जो लोहाचार्यके पूर्वज थे और नन्दिसंघकी पट्टावलीमें जिनका काल वीरनिर्वाण ४९२ से ५१५ तक बतलाया है । सरस्वती गच्छकी पट्टावलिमें इन भद्रबाहुके शिष्यका नाम गुप्तिगुप्त लिखा है तथा यह भी लिखा है कि इनका दूसरा नाम अर्हद्वलि था । और गुप्तिगुप्तके उत्तराधिकारी पट्टधरका नाम माघनन्दि लिखा है । ये अर्हद्वलि और माघनन्दि वे ही जान पड़ते हैं जिन्हें नन्दिसंघकी प्राकृत पट्टावलीमें लोहाचार्यके पश्चात् रखा है । प्राकृत पट्टावलीमें
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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