SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८ : जेनसाहित्यका इतिहास का नकारात्मक दिया है। उन्होंने लिखा है कि शिलालेखों आदिसे यह प्रकट है कि हमारे ग्रन्थकारका नाम पद्मनन्दि था और कुन्दकुन्दके नामसे प्रसिद्ध हुए। इन्द्रनन्दिने इसे स्पष्ट कर दिया है कि जन्मभूमिके नाम पर से वह कुन्दकुन्द कहलाये । किन्तु पद्यनन्दिने षट्खण्डागम पर कोई टीका लिखी थी, अनेक कारणोंसे इस बातको असन्दिग्ध रूपमें स्वीकार नहीं किया जा सकता। ऐसी कोई टीका न तो वर्तमानमें उपलब्ध है न धवला और जयधवला टीकामें ही मैं उसके कोई चिन्ह प्राप्त करने में समर्थ हो सका । बादके साहित्यमें भी उस टीका का कोई उल्लेख प्रकाशमें नहीं आया। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके सिवाय किसी अन्य ग्रन्थमें भी इस बातका निर्देश नहीं मिलता कि कुन्दकुन्दने षदखण्डागम पर कोई टीका लिखी थी। विबुध श्रीधरने अपने श्र तावतारमें लिखा है कि कुन्दकोतिने कुन्दकुन्दाचार्यसे दोनों सिद्धान्तोंका ज्ञान प्राप्त करके षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डोपर बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक शास्त्र रचा । प्रमाणोंके अभावमें इसका निर्णय करना शक्य नहीं है कि दोनोंमेंसे किसने परिकर्मकी रचना की । जहाँ तक कुन्दकुन्दका प्रश्न है मैं उसके विषयमें असंदिग्ध नहीं हूँ क्योंकि कुन्दकुन्दमें मैं टीकाकारिताकी अपेक्षा सिद्धान्त विवेचकत्व ही विशेष पाता हूँ। यद्यपि दोनों श्र तावतार एक विषयमें एक मत है कि कुन्दकुन्द के समयमें षट्खण्डागम वर्तमान था । किन्तु चूंकि उनके दूसरे कथनमें भेद पाया जाता है अतः कालनिर्णयमें सहायक होनेकी दृष्टिसे उसपर विशेष जोर नहीं दिया जा सकता । अतः उक्त चर्चा के प्रकाशमें श्रु तावतारके कथनके आधार पर डॉ० उपाध्येने इस बात पर कि कुन्दकुन्द वीर नि० सं० ६८३ के पश्चात् होने चाहिये, विशेष जोर देने में अपनेको असमर्थ बतलाया है। चौथे मुद्देके सम्बन्धमें डॉ० उपाध्येने मुख्तार सा० की सम्मतिसे अपनी रजामन्दी प्रकट करते हुए डॉ. पाठकके एकीकरणसे प्रो० चक्रवर्तीके एकीकरणको समुचित बतलाया है। किन्तु उसके सम्बन्धमें एक कठिनाई यह बतलाई है कि पल्लव राजाओंकी वंशावली और कालपरम्परा अनिश्चित है। एक ही नामके अनेक राजाओंका उल्लेख विभिन्न कालोंमें पाया जाता है। शिवस्कन्द वर्माका नाम पल्लव वंशावलीमें पांचवा है और उसके पहले एक स्कन्द वर्माका नाम है। तथा उनके शिलालेखोंमें राज्य करनेके वर्षोंका तो निर्देश है किन्तु किसी निश्चित सम्वत्का निर्देश नहीं है । अतः पल्लव राजवंशका आरम्भ भी कालक्रमकी दृष्टिसे अनिश्चित है । अन्तमें डॉ० उपाध्येने लिखा है कि यदि जयसेनके इस कथनका कि कुन्दकुन्दने शिवकुमार महाराजके लिये ग्रन्थ रचा, कोई ऐतिहासिक मूल्य है तो पाठकके एकीकरणकी अपेक्षा शिवकुमार महाराजका शिवस्कन्द पल्लवनरेशके साथ एकीकरण अधिक संभाव्य है।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy