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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : ११७ १. प्रथम मुद्दे पर विचार करते हुए डा० उपाध्येने लिखा है कि इस विषय में कि कुन्दकुन्द श्वेताम्बर दिगम्बर भेद उत्पन्न होनेके पश्चात् हुए हैं दो मत नहीं हो सकते। क्योंकि उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें मुनियोंके वस्त्र परिधान तथा स्त्री मुक्तिका निषेध किया है और ये दोनों वातें श्वेताम्बर मानते हैं। उन्होंने इस भेदकी उत्पत्ति चन्द्रगुप्त मौर्यके समकालीन श्रू तकेवली भद्रबाहके समयमें ( ईस्वी पूर्व तीसरी शताब्दी ) बतलाई है। अतः लिखा है कि कुन्दकुन्दके ग्रन्थोंमें पाया जानेवाला श्वेताम्बरीय प्रवृत्तियोंका निराकरण कुन्दकुन्दका समय निर्धारित करनेमें विशेष सहायक नहीं हो सकता। दूसरे मुद्देके सम्बन्धमें विचार करते हुए डा० उपाध्येने बोधप्राभृत की अन्तिम दोनों गाथाओंको एक साथ उद्ध त करके उनके कुन्दकुन्द रचित होनेकी यथार्थताको स्पष्ट किया है और कालक्रम निर्धारण करनेमें उनके उपयोगको न्याय्य माना है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि दूसरी गाथाके विशेषणोंसे स्पष्ट है कि प्रथम गाथामें स्मृत भद्रबाहु श्रुतकेवली भद्रवाहुके सिवाय अन्य नहीं हो सकते । तथा उनके शिष्यसे मतलब परम्परा शिष्यसे है । कुन्दकुन्दने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य क्यों बतलाया ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए डा० उपाध्येने लिखा है कि दक्षिणको जो मुनिसंघ गया था उसके प्रधान श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। अतः भद्रबाहुके स्वर्गवासके पश्चात् उनके शिष्य और प्रशिष्य उन्हें महान् गुरुके रूपमें मानते रहे होंगे। दक्षिणमें जो साधुगण थे उन्हें सब धार्मिक ज्ञान उत्तराधिकारके रूपमें भद्रबाहुसे ही प्राप्त हुआ था । अतः सुदूर दक्षिण देशके प्रधान आचार्य कुन्दकुन्दने उन्हें अपना गुरु मानकर अपनेको उनका शिष्य बतलाया तो यह कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। किन्तु कुन्दकुन्दको श्रुतकेवली भद्रबाहुका साक्षात् शिष्य माननेमें अनेक रुकावटें हैं । प्रथम तो श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् होनेवाले अंगधारियोंमें कुन्दकुन्दका नाम नहीं है । दूसरे, लिखित या किम्बदन्तीके रूपमें जैन परम्परामें एक भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता जिससे कुन्दकुन्दके श्रुतकेवली भद्रबाहुके समकालीन होनेका किञ्चित् मात्र भी समर्थन होता हो । प्रत्युत उपलब्ध बातें उस कालके विरुद्ध ही जाती हैं। तीसरे मुद्देके सम्बन्धमें डा० उपाध्येने श्र तावतारके इस कथनके सम्बन्धमें कि कुन्दकुन्दपुरके पद्मनन्दिने दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंका ज्ञान प्राप्त किया और षट्खण्डागमके तीन खण्डों पर टीका रची, लिखा है कि इस पर दो प्रश्न उठाये जा सकते हैं-प्रथम, क्या कुन्दकुन्दपुरके पअनन्दि हमारे कुन्दकुन्द ही हैं और दूसरा, क्या उन्होंने वास्तवमें षट्खण्डागमके कुछ भाग पर टीका लिखी थी ? डा० उपाध्येने इन दोनों प्रश्नोंमेंसे पहले प्रश्नका उत्तर स्वीकारात्मक और दूसरे
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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