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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : ११५
पल्लव 'थोण्ड मण्डलम् पर शासन करते थे । यह प्रदेश विद्वानोंकी भूमि माना जाता है । इसकी राजधानीने अनेक द्रविड़ विद्वानोंको आकर्षित किया था । कंजीपुरम् के राजगण ज्ञानके संरक्षक थे । ईसाकी आरम्भिक शताब्दियोंसे लेकर आठवीं शताब्दी तक अर्थात् समन्तभद्र से लेकर अकलंक तक कंजीपुरम्के चारों ओर जैनधर्मका प्रचार होता रहा है । अतः यदि कंजीपुरम्के पल्लव राजा ईसाकी प्रथम शताब्दोंमें जैनधर्मके संरक्षक थे या जैनधर्मको असंभव नहीं है ।
पालते थे तो यह
इसके सिवाय मयीडवोलु दानपत्रकी भाषा प्राकृत है । यह दानपत्र कंजी - पुरम्के शिवस्कन्द वर्मा के द्वारा जारी किया गया था । इसके प्रारम्भमें 'सिद्ध' शब्दका प्रयोग है तथा मथुराके शिलालेखोंसे यह बहुत मिलता जुलता हुआ है । ये बातें बतलाती हैं कि इसके दाता राजाका झुकाव जैनधर्मकी ओर था । अन्य अनेक शिलालेखों आदिसे यह स्पष्ट है कि पल्लव राजाओंके राज्यकी भाषा प्राकृत थी । अतः प्रो० चक्रवर्तीने यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्दने जिस शिवकुमार महाराजके लिए प्राभृतत्रय लिखे थे वह बहुत सम्भवतया पल्लव वंशका शिवस्कन्द वर्मा है ।
श्री जुगलकिशोरजी' मुख्तारने 'समन्तभद्र' विषयक अपने महानिबन्धमें आचार्य समन्तभद्रका समय निर्णय करनेकी दृष्टिसे कुन्दकुन्दाचार्यके समय सम्बन्धमें भी विचार किया है। मुख्तार साहबने नन्दिसंघकी पट्टावलीमें दिये गये समयको ( वि० स० ९४ ( ४९ ) - १०१ ) तो विश्वसनीय नहीं माना है क्योंकि पट्टावलीकी हालत ऐसी नहीं है जिसे एक विश्वस्त आधार माना जा सके । अतः उसे छोड़कर आपने दूसरे मार्गसे कुन्दकुन्दका ठीक समय उपलब्ध करनेका प्रयास किया है ।
प्रेमीजीकी तरह आपने भी इन्द्रनन्दि आचार्यके श्र तावतार में वर्णित दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंकी उत्पत्तिकी कथा तथा गुरु परिपाटीसे दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंको जानकर कुन्दकुन्दके द्वारा षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखनेकी बातको साधार मानकर यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्दाचार्य वीर निर्वाण सम्वत् ६८३ से पहले नहीं हुए, किन्तु पीछे हुए हैं । परन्तु कितने पीछे हुए हैं यह स्पष्ट नहीं है । उसको स्पष्ट करते हुए आपने लिखा है - 'यदि अन्तिम आचारांगधारी लोहाचार्यके बाद होने वाले विनयधर आदि चार आरातीय मुनियोंका एकत्र समय २० वर्षका और अहंद्वलि,
१. रत्नकरंड श्रा० की प्रस्ता०, पृ० १५८ से १८९ तक ।