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११२ : जेनसाहित्यका इतिहास हुए । इस तरह भगवान महावीरके निर्वाण (५२७ ई० पूर्व) के पश्चात् ६८३ वर्षों तक अंग ज्ञानकी प्रवृत्ति रही। फिर चार आरातीय अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता हुए। उनके पश्चात् क्रमसे अहंद्वलि, माघनन्दि और घरसेन हुए। धरसेन महाकर्म प्रकृति प्राभृतके ज्ञाता थे। थोड़ी आयु शेष रहने पर उन्हें चिन्ता हुई कि मेरे पश्चात् इस महाकर्मप्रकृति प्राभृतका विच्छेद हो जायेगा। अतः उन्होंने दो योग्य शिष्योंको बुलाकर जो बादमें पुष्पदन्त और भूतबली नामसे प्रसिद्ध हुए, महाकर्मप्रकृति प्राभूत पढ़ाया और उन्होंने षट्खण्डागम सूत्रोंकी रचना की। इस तरह षट्खण्डागम सूत्रोंकी उत्पत्ति बतलाकर श्रुतावतारमें कषाय प्राभृतकी उत्पत्तिका वृत्तान्त बतलाते हुए लिखा है कि गुणधर मुनीन्द्रने कषाय प्राभृतकी रचना करके नागहस्ती और आर्यमंक्षुको उनका व्याख्यान किया। आर्यमंक्षु और नागहस्तीसे उन गाथा सूत्रोंको पढ़कर यति वृषभ नामक आचार्यने उनपर छै हजार श्लोक प्रमाण चूणि सूत्रोंकी रचना की । यति वृषभसे उन चूणि सूत्रोंका अध्ययन करके उच्चारणाचार्यने उनपर बारह हजार श्लोक प्रमाण उच्चारणा सूत्र नामक वृत्तिकी रचना की। इस प्रकार गुणधर, यतिवृषभ
और उच्चारणाचार्यके द्वारा गाथासूत्र, चूर्णिसूत्र और उच्चारणा सूत्रोंके रूपमें कषाय प्राभृत निबद्ध हुआ। इन दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंको कुण्डकुन्द पुरमें पद्मनन्दि मुनिने गुरु परम्परासे जाना और उन्होंने षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डों पर बारह हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा।" __इससे स्पष्ट है कि कुन्दकुन्द वीर निर्वाणसे ६८३ वर्षोंके पश्चात् हुए। श्री प्रेमी जीने धरसेन तथा उच्चारणाचार्य पर्यन्त अन्य आचार्योंका कम से कम समय निर्धारित करके यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्द विक्रमकी तीसरी शताब्दीके अन्तिम चरणमें हुए है।
इसके सिवाय प्रेमी जीका कहना है कि उर्जयन्त गिरिपर कुन्दकुन्दका श्वेताम्बरोंके साथ विवाद हुआ था । कुन्दकुन्दके सुत्तपाहुडसे यह प्रकट होता है कि कुन्दकुन्दके समयमें जैन संघमें श्वेताम्बर और दिगम्बर भेद हो चुका था। देवसेनके दर्शनसारके अनुसार विक्रमकी मृत्युसे १३६ वर्ष बीतने पर यह भेद हुआ। प्रेमी जोने इसे शालिवाहन शकाब्द मानकर १३६ + १३५ = २७१ विक्रम सम्वत्में संघ भेद माना है। और इस तरह यह काल भी श्रुतावतारके आधार पर निर्धारित किये गये कालके साथ मेल खाता है। अतः प्रेमी जीके मतानुसार कुन्दकुन्दाचार्य विक्रमकी तीसरी शताब्दीके अन्तिम चरणमें हुए है। तथा वीर निर्वाण सम्वत् ६८३ से पहले तो किसी भी तरह नहीं हुए। डा० पाठकका मत
डा० पाठकको राष्ट्रकूट नरेश गोविन्दराज तृतीयके दो ताम्रपत्र मिले थे