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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १११ उक्त उल्लेखके अनुसार विक्रम सम्बत्की चौदहवीं शताब्दीके अन्तमें अथवा पन्द्रहवींके पूर्वमें उक्त विवाद हुआ है।
देवगढ़ की एक मूर्ति पर सम्वत् १४९३ का एक लेख है। जिससे प्रकट होता है उसकी प्रतिष्ठा मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ कुन्दकुन्दाचार्य अन्वयके भट्टारक प्रभाचन्द्रके शिष्य पद्मनन्दि और पद्मनन्दिके शिष्य देवेन्द्रकीर्तिने कराई थी।
यह पद्मनन्दि सरस्वतीगच्छकी पट्टावलीके पद्मनन्दि जान पड़ते हैं क्योंकि उनके गुरुका नाम प्रभाचन्द्र लिखा है। तथा मूर्ति लेखमें उन्हें 'वादि वादीन्द्र' लिखा है। सम्भवतया गिरिनार पर्वतके विवादमें विजय प्राप्त करनेके कारण ही उन्हें 'वादि वादीन्द्र' का विरुद दिया गया है। इनका समय भी पट्टावलीसे मिल जाता है। इन्हींसे वलात्कारगणकी सूरत शाखाकी भट्टारक परम्पराका आरम्भ हुआ है। उक्त विवादके जो उल्लेख ऊपर दिये गये हैं वे सब उक्त समयके पश्चात्के हैं। अतः उक्त विवाद विक्रमकी पन्द्रहवीं शताब्दीमें हुआ होगा इस लिये आचार्य कुन्दकुन्दसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । ___ समय विचार-आचार्य कुन्दकुन्दके समयके सम्बन्धमें अब तक जिन विद्वानोंने प्रकाश डाला है उनमें श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमी, पं० जुगलकिशोरजी' मुख्तार, डा० के० बी० पाठक, प्रोफेसर चक्रवर्ती" और डा० ए० एन० उपाध्ये का नाम उल्लेखनीय है । डा० उपाध्येने उक्त विद्वानोंके मतोंकी समीक्षा करके अपना एक मत निर्धारित किया है। नीचे उक्त बिद्वानोंके मत संक्षेपमें दिये जाते है । इससे प्रकृत विषय पर ऊहापोह करनेमें सरलता होगी।
१. प्रेमीजीका मत-प्रेमीजीके विचारका मुख्य आधार इन्द्रनन्दिका श्रु तावतार है । श्रुतावतारमें लिखा है कि भगवान महावीरके पश्चात् ६२ वर्षमें तीन केवली हुए। उनके पश्चात् १०० वर्षों में पांच श्रुतकेवली हुए। फिर १८३ वर्षोंमें ११ आचार्य दस पूर्वोके ज्ञाता हए। फिर २२० वर्षों में ५ आचार्य ग्यारह अंगोंके ज्ञाता हुए फिर ११८ वर्षों में चार आचार्य एक अंगके धारी
१. भ० स०, पृ० १६९ । २. जै० हि० भा० १० पृ० ३७८ आदि । ३. र० श्रा० की प्रस्ता०, पृ० १५७ आदि । ४. समय प्राभृत ( काशी संस्काण ) की संस्कृत प्रस्तावनामें । ५. पञ्चास्तिकायके अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना । ६. प्रवचनसार ( रा० जै० शा० ) की प्रस्तावना ।