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________________ १०८ : जेनसाहित्यका इतिहास किन्तु उनका साक्षात् गुरु कौन था यह अज्ञात है । नन्दिसंघकी पट्टावलीमें माघनन्दीके शिव्य जिनचन्द्रको उनका गुरु बतलाया है और श्रुतसागरने भी अपनी टीका सन्धिवाक्यों में ऐसा ही लिखा है । विदेह यात्रा — कुन्दकुन्द स्वामीने विदेह क्षेत्रमें जाकर श्रीमन्दर स्वामी भगवान्‌के मुखकमलसे निसृत दिव्यध्वनिका पान किया था, इस घटनाका सबसे प्राचीन उल्लेख देवसेनने अपने दर्शनसारमें किया है जो वि०सं० ९९० में रचा गया है और जिसके सम्बन्धमें उन्होंने यह लिखा है कि प्राचीन गाथाओंका संकलन करके रचा गया है । अतः कुन्दकुन्दके सम्बन्धमें इस तरह की किंवदन्ती उससे भी बहुत पहलेसे प्रचलित थी यह स्पष्ट है । उनके सम्बन्धमें जो कथाएं प्रचलित हैं उनमें भी इस घटनाका उल्लेख । तथा टीकाकार जयसेन ( १२वी शताब्दी ) और श्रुतसागर सूरि ( विक्रमकी १६वीं शती ) ने भी इसका उल्लेख अपनी टीकामें किया है । जयसेनने तो इसे प्रसिद्ध कथा कहा है । शुभचन्द्राचार्यने ( १६वीं शती) की पट्टावलीमें इसका उल्लेख है । शिलालेखों में यद्यपि इस घटनाका कोई उल्लेख नहीं है किन्तु कुन्दकुन्द को चारण ऋद्धिका धारी बतलाया है और लिखा है कि समीचीन संयम के प्रभावसे उन्हें चारणऋद्धि प्राप्त हुई थी । क्रिया विषयक ऋद्धिके दो भेद हैंचारण और आकाश गामि । चारणऋद्धिके अनेक प्रकार हैं उनमें एक जंघा - चारण है । भूमिसे चार अंगुल ऊपर आकाशमें जंघाओंको जल्दी-जल्दी उठाते रखते हुए सैकड़ों योजन चले जाना जंघाचारण ऋद्धि है | श्रवणबेलगोला के शिलालेख नं० १०५ में लिखा है कि अन्तरंगकी तरह बाह्य भी उनका रजसे अस्पष्ट है, ऐसा व्यक्त करनेके लिए ही मानों वे भूमितलकी धूलिसे चार अंगुल ऊपर चलते थे । श्रुतसागरने भी उन्हें चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करनेकी ऋद्धिसे विशिष्ट बतलाया है । किन्तु शिलालेखोंमें उनके विदेह जानेका कोई उल्लेख नहीं है । प्रत्युत एक शिलालेखमें पूज्यपादके सम्बन्धमें इस प्रकार - का उल्लेख मिलता है । उसमें लिखा है - अनुपम औषधिऋद्धिके धारी तथा विदेहस्थ जिन ( श्रीमन्दर स्वामी के दर्शनसे जिनका शरीर पवित्र हो गया है वे श्री पूज्यपाद मुनि जयवन्त हो । उस समय उनके पैरों, कंधों ये हुए जल १. 'रजोभिरस्पष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः । रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ॥ १४ ॥ ' -जै० शि० सं० भा० १ । २. 'श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषर्घाद्ध जयाद् विदेह - जिन - दर्शनपूत गात्रः । यत्पादधौतजल संस्पर्शः प्रभावात्कालायसं किल तदा कनकीचकार ॥ १७॥ ' -जै० शि० सं० भा० १, ले० नं० १०८ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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