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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १०७ बाहुके वंशमें हुआ बतलाकर श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्य चन्द्रगुप्तके पश्चात् ही उन्हें स्थान दिया है। अतः यह निस्सन्देह है कि कुन्दकुन्दने अपनेको श्रुतकेवली भद्रबाहुका शिष्य बतलाया है और उन्हें अपना गमकगुरु लिखा है । ___ 'गमक' शब्दके बोधक, निश्चायक, प्रापक, सूचक आदि अनेक अर्थ है किन्तु श्रु तकेवली भद्रबाहुके साथ न तो कुन्दकुन्द स्वामीका साक्षात् सम्बन्ध था और न उनके सामने उनकी कोई कृति ही थी। अतः उन्हे अपना गमक गुरु कैसे बतलाया यह चिन्त्य है। __इतिहासज्ञोंसे यह बात अज्ञात नहीं है कि श्र तकेवली भद्रबाहु अपने शिष्य मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त तथा एक बड़े भारी साधु संघके साथ उत्तर भारतसे दक्षिण भारतकी ओर गये थे और श्रवणवेल गोला (मैसूर) नामक स्थानमें उनका स्वर्गवास हुआ था। आचार्य कुन्दकुन्दको यह बात ज्ञात थी। वह जानते थे कि दक्षिण भारतमें जो जैन तत्त्वज्ञान की परम्परा चालु है वह श्रु तकेवली भद्रबाहुकी देन है । यद्यपि जैनधर्म दक्षिणमें भद्रबाहुकी दक्षिण यात्रासे पहलेसे वर्तमान था। यदि ऐसा न होता तो भद्रबाहु इतने बड़े संघको उत्तरसे दक्षिण ले जानेका खतरा न उठाते । उन्हे विश्वास था कि दक्षिण भारतके जैनबन्धु उनके संघका हार्दिक स्वागत करेंगे। किन्तु अन्तिम श्र तकेवली होनेके नाते वे भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट अंग ज्ञानके एक मात्र उत्तराधिकारी थे और उनके पश्चात् जो अंगज्ञानकी प्रवृत्ति जारी रही उसके एक मात्र हेतु श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । इस नातेसे कुन्दकुन्द स्वामीको भी जो ज्ञान प्राप्त हुआ वह भी परम्परासे श्र तकेवली भद्रबाहुकी ही देन था। इसीसे समयसारकी प्रथम गाथामें उन्होंने उसे 'श्र तकेवली भणित' कहा है। वहाँ भी श्रुतकेवलीसे उनका आशय भद्रबाहु श्रतकेवली ही से है । इसीसे उन्होंने उन्हे अपना गमक गुरु लिखा है। उनके इन उल्लेखोंसे भी इस बातकी पुष्टि होती है कि दक्षिण भारतमें जैनसंघके साथ जाने वाले भद्रबाहु श्र तकेवली भद्रबाहुके सिवाय दूसरे नहीं थे। अतः जिनका यह कहना है कि वे भद्रबाहु दूसरे थे, उनका कहना समुचित नहीं है । अस्तु, इस तरह श्रु तकेवली भद्रबाहुको कुन्दकुन्दने अपना गमक गुरु बतलाया है भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दिप्रथमाभिधानः ।'-शिले० नं० ४० । 'यो भद्रबाहुः श्रु तकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपिः॥८॥ तदीय शिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तः......॥९॥ तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला । बभौ यदन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्स कुण्डकुण्डोदितचण्डदण्डः ॥१०॥ -जै० शि० सं० भा० १ । पृ० २१० ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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