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________________ १०६ : जेनसाहित्यका इतिहास उक्त गाथामें 'सद्दवियारो हुओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं' इन शब्दों द्वारा सूचित किया गया है--वह अविच्छिन्न चला आया था। परन्तु दूसरे भद्रवाहुके समयमें वह स्थिति नहीं रही थी-कितना ही श्रुत ज्ञान लुप्त हो चुका था और जो अवशिष्ट था वह अनेक भाषासूत्रोंमें परिवर्तित हो गया था। इससे ६१वीं गाथा के भद्रबाहु द्वितीय ही जान पड़ते हैं । ६२वीं गाथामें उसी नामसे प्रसिद्ध होने वाले प्रथम भद्रबाहुका अन्त्य मंगलके तौर पर जयघोष किया है और उन्हें साफ तौरसे गमक गुरु लिखा है । इस तरह दोनों गाथाओंमें दो अलग-अलग भद्रबाहुओंका उल्लेख होना अधिक युक्तियुक्त और बुद्धिगम्य जान पड़ता है। हमें खेद है कि हम मुख्तार साहबके उक्त अभिप्रायसे सहमत नहीं है । दोनों गाथाएँ परस्परमें संबद्ध है। पहली गाथामें कुन्दकुन्दने अपनेको जिन भद्रबाहुका शिष्य बतलाया है दूसरी गाथाके द्वारा उन्हींकी विशेषताओंका स्पष्टीकरण करते हए जयकार किया है जिससे पाठकको कोई भ्रम न हो । विवाह किसी औरका हो और गीत किसी दूसरेके गाये जायें, ऐसा नहीं होता। पाठकको यह सन्देह हो सकता था कि श्रुतकेवली भद्रबाहुके शिष्य कुन्दकुन्द कैसे हो सकते हैं क्योंकि दोनोंके बीचमें सुदीर्घ कालका अन्तर है। इस सन्देहको मिटानेके लिए उन्होंने 'गमक गुरु' विशेषण भद्रबाहु श्रु तकेवलीके साथ लगा दिया। असलमें दूसरी गाथा पहली गाथामें आगत अन्तिम चरण 'सीसेण य भद्दवाहुस्स' की भाष्य गाथा जैसी है। उसमें शिष्य और भद्रबाहु दोनोंका स्पष्टीकरण कर दिया गया है कि भद्रबाहुसे मतलव यू तकेवली भद्रबाहुसे है और वे मेरे गमक गुरु हैं इसलिए मैं उनका शिष्य हूँ। रही भाषा सूत्रोंमें विकार होनेकी बात । गाथा ६१ का हमने जो अर्थ दिया है वह मुख्तार साहबका ही किया हुआ है। मुख्तार सा० ने अपने जिस लेखमें विकार वाली बात कही है उसीमें उक्त अर्थ भी किया है । उस अर्थसे ऐसा कोई भाव व्यक्त नहीं होता जैसा मुख्तार सा० ने लिया है। गाथा और उसका अर्थ बिल्कुल स्पष्ट है । भगवान महावीरने जो कहा वह भाषासूत्रोंमें शब्द विकारको प्राप्त हुआ अर्थात् उसने ग्रन्थात्मक श्रु तका रूप धारण किया । श्र तसागरने अपनी टीकामें 'सीसेण य भद्रबाहस्स'का जो अर्थ किया है उससे भी यही प्रकट होता है कि उन्होंने भी भद्रबाहुसे श्र तकेवली भद्रबाहुका ही ग्रहण किया है। __इसके सिवाय श्रवणवेल गोलाके शिला' लेखोंमें भी उन्हें श्रुतकेवली भद्र १. श्रीभद्रस्सर्वतो यो हि भद्रबाहुरितिश्रु तः । श्रुतकेवलिनाथेषु चरमः परमो मुनिः ॥४॥ .....""श्री चन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्यः ।......॥५॥ तस्यान्वये
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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