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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १०५
प्रथम तो उच्चनगर शाखाका कुन्दकुन्दसे कोई सम्बन्ध ज्ञात नहीं है । दूसरे जब तक कोई और सूत्र प्राप्त न हो तब तक इसकी संगति नहीं बैठाई जा सकती ।
इसी तरह नन्दि संघकी पट्टावलीमें माघनन्दि, उनके बाद जिनचन्द्र तब कुन्दकुन्दका नाम आता है । इस तरह उसमें कुन्दकुन्दको जिनचन्द्रका और जिनचन्द्रको माघनन्दिका उत्तराधिकारी बतलाया है । इन जिनचन्द्र के विषयमें भी कहीं से कुछ ज्ञात नहीं होता ।
किन्तु कुन्दकुन्दने स्वयं अपनेको भद्रबाहुका शिष्य बतलाया है । यथासद्दवियारो हूओ भासासुत्तसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्द बाहुस्स ॥ ६१ ॥ - बो० पा० । इसमें बतलाया हैकि 'जिनेन्द्रने - भगवान महावीरने- अर्थरूपसे जो कथन किया है वह भाषासूत्रों में शब्द विकारको प्राप्त हुआ है—अनेक प्रकारके शब्दों में गूँथा गया है । भद्रबाहुके मुझ शिष्यने उन भाषासूत्रों परसे उसको उसी रूपमें जाना है और ( जानकर इस ग्रन्थमें) कथन किया है ।
उक्त गाथाके पश्चात् ही जो दूसरी गाथा आती है । वह भी नीचे दी जाती है
बारस अंगवियाणं चउदस पुब्वंग विउलवित्थरणं ।
सुयणाणि भद्दबाहु गमयगुरू भयवओ जयऊ ॥६२॥
इस गाथामें बारह अंगों और चौदह पूर्वोके विपुल विस्तारके ज्ञाता श्रुतकेवली भद्रबाहुको कुन्दकुन्दने अपना गमक गुरु बतलाते हुए उनका जयकार किया है ।
इस गाथासे यह विल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि पहली गाथामें जिन भद्रबाहु का उल्लेख है वे श्रुतकेवली भद्रबाहुके सिवाय दूसरे भद्रबाहु नहीं हो सकते । किन्तु श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारका सा० का मन्तव्य इसके विपरीत है । उक्त दूसरी गाथाके सम्बन्धमें उन्होंने लिखा ' है — इस परसे यह कहा जा सकता है कि पहली गाथा ( नं० ६१ ) में जिन भद्रबाहुका उल्लेख है वे द्वितीय भद्रबाहु न होकर भद्रबाहु श्रुतकेबली ही हैं और कुन्दकुन्दने अपनेको उनका जो शिष्य बतलाया है वह परम्परा शिष्यके रूप में उल्लेख है परन्तु ऐसा नहीं है । पहली गाथामें वर्णित भद्रबाहु श्रुतकेवली मालूम नहीं होते, क्योंकि श्रुतकेबली भद्रबाहु समयमें जिन कथित सूत्रमें ऐसा कोई खास विकार नहीं हुआ था । जिसे
१. अनेकान्त, वर्ष २, कि० १, पृ० १२ ।