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________________ १०२ : जेनसाहित्यका इतिहास अनुसार षट्खण्डागमके आद्य टीकाकार कौण्डकुन्दपुर वास्तव्य पद्म नन्दि थे और अन्तिम टीकाकार थे वीरसेन । अतः वीरसेनके गुरु एलाचार्यसे कुन्दकुन्द कई शताब्दियों पूर्व हो चुके थे । इस लिये वे उनसे बिल्कुल भिन्न व्यक्ति थे । इन्द्रनन्दि योगीन्द्रका रचा हुआ एक ज्वालिनीकल्प का नामका मंत्र शास्त्र है । यह ग्रन्थ शक सं० ८६१ के बीतने पर रचकर समाप्त हुआ है । इसके प्रारम्भमें ग्रन्थकारने बतलाया है कि हेलाचार्यके द्वारा रचित प्राक्तन शास्त्रको परिवर्तित करके लिखा है । टिप्पणी में हेलाचार्यको एलाचार्य रूपसे भी उल्लिखित किया है । इन हेलाचार्य अथवा एलाचार्य के साथ भी कुन्दकुन्दकी एकरूपता स्थापित करना शक्य नहीं है क्योंकि प्रथम तो यह उतने प्राचीन ज्ञात नहीं होते । दूसरे इस सम्बन्धमें प्रमाणका अभाव है । अतः कुन्दकुन्दका नाम एलाचार्य था यह प्रमाणित नहीं होता । अब हम तीसरे नाम गृद्धपिच्छको लेते हैं— श्रवण वेलगोलासे प्राप्त शिलालेख नं० ४०, ४२, ४३, ४७, ५०, १०५, १०८ में उमास्वातिको गृद्धपिच्छाचार्य कहा है और उमास्वातिको कुन्दकुन्दके अन्वयमें हुआ बतलाया है । पल्लादहल्लि के शिलालेखमें जो ११५४ ई० का है, समन्तभद्र स्वामी और अकलंकदेवके पश्चात् गृद्धपिच्छाचार्य नामका स्वतंत्र निर्देश किया है। श्रवण वेलगोलाके उक्त शिलालेखों में उमास्वातिके शिष्यका नाम बलाक पिच्छ बतलाया है । जिससे प्रकट होता है कि इस प्रकारके स्वतंत्र नाम भी प्रचलित थे । गृद्धपिच्छ नामका स्वतंत्र रूपसे प्राचीन उल्लेख धवला - की टीकामें वीरसेन स्वामीने किया है। उन्होंने गृद्धपिच्छाचार्यको तत्त्वार्थ सूत्रका कर्ता बतलाया है । चूंकि तत्त्वार्थ सूत्रके कर्ताके रूपमें उमास्वातिका नाम प्रसिद्ध है और शिलालेखोंमें उमास्वातिको ही गृद्धपिच्छाचार्य कहा है अतः वीरसेन स्वामी द्वारा स्वतंत्र रूपसे प्रयुक्त नामको भी उमास्वातिके रूपमें ही लिया जायेगा । किन्तु उमास्वातिका गृद्धपिच्छाचार्य नाम इतना ख्यात नहीं था कि उसका प्रयोग नामान्तरके रूपमें किया जा सके। इसके सम्बन्धमें विशेष विचार आगे किया जायगा । इन सब उल्लेखोंसे तो यही प्रमाणित होता है कि यदि गृद्धपिच्छ किसीका नामांतर था तो उमास्वाति का था, न कि कुन्दकुन्द का । किन्तु उक्त कथामें १. अनेकान्त, वर्ष १ पृ० ४३१ । २. जै० शि० सं०, भा० १ । ३. जै० शि० सं० भा० ३, नं० ३२४ |
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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