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द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : १०१ सं० १०५० ( ११२९ ई० ) का है, वक्रग्रीवका नाम आता है । यह शिलालेख बहुत लम्बा है । इसमें पहले कोण्डकुन्दका नाम आता है। फिर समन्त भद्र और सिंहनन्दिकी प्रशंसा है। पश्चात् वक्रग्रीव महामुनिकी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि नागेन्द्र एक हजार मुखोंसे भी उनकी स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हो सका। शासन देवता उनका बहुत आदर करते थे। वादियोंकी गर्दनें (ग्रीवा ) उनके सामने झुक जाती थीं। छै मास तक उन्होंने केवल 'अथ' शब्दका अर्थ किया था। इस तरह वक्रग्रीवको बड़ा पूज्य और विद्वान् बतलाया है। किन्तु शिलालेखसे इस बातका कोई आभास नहीं मिलता कि कुन्दकुन्दका ही नाम वक्रग्रीव था, प्रत्युतः उससे तो यही प्रमाणित होता है कि वक्रग्रीव नामके भी कोई आचार्य थे और वह कुन्दकुन्दसे पर्याप्त समयके पश्चात् हुए थे।
इसके सिवाय वेलूरके ११३७ ई० के शिलालेखमें समन्तभद्र और पात्रकेसरीके पश्चात् वक्रग्रीवका नाम आया है और उन्हें द्रमिल संघका अग्रेसर बतलाया है । करगुण्डसे प्राप्त ११५८ ई० के शिलालेख में अकलंकदेवके पश्चात्
और सिंहनन्द्याचार्यसे पहले वक्रग्रीवाचार्यका नाम आया है। वोगादिसे प्राप्त शिलालेख में भी वक्रग्रीवाचार्यका नाम है। किन्तु इन सभी शिलालेखोंसे यही प्रमाणित होता है कि वक्रग्रीव नामके भी एक महान् आचार्य हुए हैं । और वे द्रविड संघ, नन्दिगण तथा अरुंगलान्वय शाखाके थे । कुन्दकुन्दके साथ वक्रग्रीव नामका कोई सम्बन्ध इनसे ज्ञात नहीं होता।
अब हम एलाचार्य नामकी ओर आते हैं ।
चिक्कहनसोगे से प्राप्त एक शिलालेखमें, जिसका अनुमानित समय ११०० ई. है, देसियगण, पुस्तकगच्छके एलाचार्यका नाम आता है। उनके शिष्यका नाम दामनन्दि भट्टारक था। जयधवला और धवलाके रचयिता वीरसेनके गुरुका नाम भी एलाचार्य था, धवलाकी प्रशस्तिके प्रारम्भमें उन्होंने उनका स्मरण किया है। तथा इन्द्रनन्दिने श्रुतावतारमें लिखा है कि चित्रकूटवासी एलाचार्य सिद्धान्त शास्त्रोंके ज्ञाता थे और उनके पास वीरसेन स्वामीने सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन करके धवला जयधवला टीकाकी रचना की थी। साथ ही इन्द्रनन्दिने कौन्डकुन्द पुरके पद्मनन्दिका भी निर्देश किया है और उन्हें षट्खण्डागमके आद्य तीन खण्डों पर परिकर्म नामक ग्रन्थका रचयिता बतलाया है। इन्द्रनन्दिके
१. जै० शि० सं० भा० ३, नं० ३०५ । २. जै० शि० सं०, भा० ३, नं० ३४७ । ३. जै०शि० सं० भा० ३, नं० ३१९ । ४. जै० शि० सं०, भा० ३, नं० ।