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१०० : जैनसाहित्यका इतिहास कोण्डकुन्दपुरके निवासी थे। उनका मूल नाम पचनन्दि था और अपने जन्म स्थानके नाम परसे वह कौण्डकुन्द या कुन्दकुन् द नामसे ख्यात हुए ।
श्रवण वेलगोलाके अनेक शिलालेखोंसे' भी उक्त कथनकी पुष्टि होती है उसमें उनका प्रथम नाम पद्मनन्दि बतलाया है । तथा श्री कौण्डकुन्द आदि अन्य नाम बतलाये हैं।
विजय नगरके शक सं० १३०७ के एक अन्य शिलालेख में पांच नाम बतलाये हैं-पग्रनन्दी, कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छ । डा. होर्नले ने दिगम्बर पट्टावलियोंके सम्बन्धमें एक विस्तृत लेख लिखा था, एक प्रतिके आधार पर उसने उसमें लिखा है कि कुन्दकुन्दके पांच नाम थे। कुन्दकुन्दके षट्प्राभृतोंके टीकाकार श्रुतसागरने भी प्रत्येक प्राभृतके अन्तमें जो सन्धिवाक्य दिये हैं उनमें कुन्दकुन्दके उक्त पांचो नाम स्वीकार किये हैं । इस तरह पाँच नामोंकी परम्परा मिलती है किन्तु ऐतिहासिक तथ्योंके प्रकाशमें विचार करने पर पांच नाम वाली बात प्रमाणित नहीं होती।
जहां तक पचनन्दि और कुन्दकुन्द नामकी प्रवृत्तिकी बात है उसमें तो कोई सन्देहकी बात नहीं है। उनका मूल नाम पद्मनन्दि था और वे अपने जन्म स्थानके नाम परसे कुन्दकुन्द नामसे ख्यात हुए। शेष तीन नामोंकी स्थिति विचारणीय है।
पहले वक्रग्रीव नामको देखा जाये । ई० ११२५ के एक शिलालेखमें द्रविल (5) संघ और अरुंगलान्वयके आचार्योंकी नामावलीमें वक्रग्रीवाचार्यका नाम आया है किन्तु उसमें उनके सम्बन्धमें कोई विवरण नहीं दिया कि यह कौन थे। इसके पश्चात् श्रवण वेलगोलाके शिलालेख" नं० ५४ में, जो श०
१. 'तस्यान्वये भूविदिते बभूव यः पद्मनन्दि प्रथमाभिधानः । श्री कौण्डकुन्दादि
मुनीश्वराख्यस्ससंयमादुद्गतचारणद्धि ॥६॥-शि० ले० नं० ४० । 'श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसंजात सुचारद्धिः ॥४॥-शि० ले० नं० ४२, ४३, ४७, ५० ।
-०शि० सं०, भा० १ । २. 'आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामुनिः । एलाचार्यों गृद्धपिच्छ इति
तन्नाम पञ्चधा ॥४॥' -जै० सि० भा०, भा० १, कि० ४ । ३. इं० एं, जि० २१, पृ० ७४, टि० नं. ३५ । ४. जै०शि०सं०, भा० १, नं० ४९३ । ५. जै० शि० सं० भा० १ ।