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________________ द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : ९९ ध्यान करते हुए उन्होंने अपना मन वचन काम विदेह क्षेत्रमें स्थित श्रीमन्धर स्वामीके प्रति एकाग्र किया। समवशरणमें विराजमान श्रीमन्धर स्वामीने 'सद्धर्मवृद्धिरस्तु' कहकर उन्हें आशीर्वाद दिया। समवसरणमें स्थित जनोंको यह आशीर्वाद सुनकर बड़ा अचरज हआ। क्योंकि वहाँ किसीने भी उस समय भगवानको नमस्कार नहीं किया था। जिज्ञासा प्रकट करने पर भगवान श्रीमन्धर स्वामीने कहा कि हमने भरत क्षेत्रमें स्थित कुन्दकुन्द मुनिको आशीर्वाद दिया है । तत्काल कुन्दकुन्दके पूर्व जन्म के मित्र दो चारण ऋद्धि धारी मुनि वारांपुर गये और कुन्दकुन्दको समवसरणमें लिवा ले गये । आकाश मार्गसे जाते समय कुन्दकुन्दकी मयूरपिच्छी कहीं गिर गई तब कुन्दकुन्दने गृद्ध पिच्छसे अपना काम चलाया। कुन्दकुन्द वहाँ एक सप्ताह तक रहे और उनकी शंकाका समाधान हो गया। लौटते समय वे अपने साथ तंत्र मंत्रका एक ग्रन्थ लाये थे किन्तु वह मार्गमें ही लवण समुद्रमें गिर गया। भरत क्षेत्रमें लौटने पर उन्होंने अपना धार्मिक उपदेश देना प्रारंभ कर दिया और तत्काल ७०० स्त्री पुरुष उनके अनुयायी बन गये। कुछ समय पश्चात् गिरिनार पर्वत पर उनका श्वेताम्बरोंके साथ विवाद हो गया। तब उन्होंने वहाँकी देवी ब्राह्मीके मुखसे यह कहलाया कि दिगम्बर निर्ग्रन्थ मार्ग ही सच्चा है। अन्तमें उन्होंने अपना आचार्य पद अपने शिष्य उमास्वातिको प्रदान किया और सल्लेखना पूर्वक शरीरको त्याग दिया। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ताका नाम भी पद्मनन्दि था और उन्होंने वारा नगरमें जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिकी रचना की थी। चूंकि कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दि भी था। अतः ऐसा प्रतीत होता है जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ता पद्मनन्दिको ही कुन्दकुन्द समझकर ज्ञान प्रवोधके कर्ताने कुन्दकुन्दका जन्म स्थान वारां बतला दिया है। और कुन्दकुन्द नामकी उपपत्ति बैठानेके लिये उनके माता पिताके नाम कुन्दलता और कुन्दश्रेष्ठी कल्पित कर लिये गये हैं। और उनके विदेह गमनकी जो कथा पहलेसे ही प्रवर्तित यी, उसे उसमें जोड़ दिया गया है । अब विभिन्न आधारोंसे उनके सम्बन्धमें जो बातें ज्ञात होती हैं उनकी समीक्षाके प्रकाशमें कुन्दकुन्दके जीवन पर प्रकाश डाला जाता है। ___ सबसे प्रथम उनके नामोंकी स्थिति विचारणीय है। वारस अणुवेक्खाकी अन्तिम गाथामें उसके रचयिताका नाम कुन्दकुन्द दिया हुआ है। इसी नामसे वे ख्यात हैं। किन्तु समयसारकी अपनी टीकाके अन्तमें जयसेनाचार्यने श्री पद्मनन्दिका जयकार किया है और उन्हें समयप्राभूतका रचयिता कहा है। उधर इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोंकी प्राप्ति कोण्डकुन्दपुरके पमनन्दिको होनेका निर्देश किया है। उससे यह प्रकट होता है कि पद्मनन्दि
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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