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९८ : जेनसाहित्यका इतिहास पूजा किया करता था। एक दिन उसे शेरने खा डाला। वह मरकर निदानवश उसी गांवके मुखियाके घर उसके पुत्र रूपमें उत्पन्न हुआ।
बड़ा होने पर उसे अपने पूर्व जन्मका स्मरण हो आया और वह साधु हो गया वहाँसे मरकर वह राजा कुण्डेश हुआ वहाँ भी उसने जिन दीक्षा ले ली और श्रुतकेवली हुआ।
ब्रह्म नेमिदत्तसे तीन शताब्दी पूर्व हुए पं० आशाधरने भी अपने सागारधर्मामृतमें शास्त्र दानके फलके रूपमें कौण्डेशका उल्लेख किया है यथा
कौण्डेशः पुस्तका वितरणविधिनाऽप्यागमाम्भोधिपारम् ॥७०॥ अर्थात् पुस्तकोंकी पूजा और दानकी विधिसे कौण्डेश श्रुतसमुद्रका परगामी अर्थात् श्रुतकेवली हुआ।
इसकी स्वोपज्ञ संस्कृत टीकामें 'आशाधरने कोण्डेशको पूर्व जन्ममें गोविन्द नामका ग्वाला बतलाया है। वहाँसे मरकर वह ग्रामकूटका पुत्र हुआ और फिर कोण्डेश नामका मुनि हुआ। __ इस कथाका कुन्दकुन्दाचार्यके जीवनसे क्या कुछ सम्बन्ध है, यह नहीं कहा जा सकता। किन्तु 'कौण्डेश' नामसे और उसमें आगत पद्मनन्दि नामसे उसका सम्बन्ध कुन्दकुन्दाचार्यसे ही जान पड़ता है।
एक कथा श्रीयुत प्रेमीजी ने ज्ञानप्रबोध नामक पद्यबद्ध भाषा ग्रन्थसे जैनहितैषी (भा० १०, पृ० ३६९) में प्रकाशित की थी। उसका सार इस प्रकार है-मालव देशके वारांपुर नगरमें कुमुदचन्द्र नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानीका नाम कुमुदचन्द्रिका था। उसके राज्यमें एक कुन्द श्रेष्ठी नामका साहूकार रहता था। उसकी सेठानीका नाम कुन्दलता था। उनके कुन्दकुन्द नामका एक पुत्र था। एक दिन वह लड़कोंमें अन्य लड़कोंके साथ खेलता था। उसने एक उद्यानमे एक मुनिराजको देखा। उनके चारों ओर बहुत-सा समुदाय बैठा हुआ था। लड़केने ध्यानसे उनका उपदेश सुना और वह उनके उपदेशसे इतना प्रभावित हुआ कि उनका शिष्य बन गया। उस समय बालककी उम्र केवल ग्यारह वर्ष की थी और उसके गुरुका नाम जिनचन्द्र था । __ बालक कुन्दकुन्दने जल्दी ही इतनी उन्नति की कि वह ३३ वर्ष की अवस्थामें आचार्य बना दिया गया। एक दिन आचार्य कुन्दकुन्दको जैन सिद्धान्तके सम्बन्धमें कोई शंका उत्पन्न हुई। वे ध्यानमें मग्न हो गये। एक दिन
१. 'तथा कौण्डेशोऽपि गोविन्दारव्यगोपालचरो ग्रामकूटपुत्रः सन् कौण्डेशो
नाम मनिश्च ।'