________________
द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूलसाहित्य : ९७ ५. कुन्दकुन्दके दूसरे टीकाकार जयसेनने समयसार टीकाके' अन्तमें लिखा है-श्री पद्मनन्दी जयवन्त हों, जिन्होंने महातत्त्वोंका कथन करने वाले समयप्राभृतरूपी पर्वतको बुद्धि द्वारा उद्धार करके भब्य जीवोंको अर्पित किया। तथा उन्होंने पञ्चास्तिकायकी टीकाको प्रारम्भ करते हुए लिखा है-कि कुण्डकुन्दाचार्यके पद्मनन्दि आदि अन्य नाम भी हैं। वह कुमारनन्दि देवके शिष्य थे और प्रसिद्ध कथाके अनुसार उन्होंने पूर्व विदेहमें जाकर वीतराग सर्वज्ञ श्रीमन्दर ( सीमंधर ) स्वामी तीर्थकरके दर्शन किये थे और उनके मुखकमलसे निकली हुई दिव्यवाणीको सुनकर तथा शुद्ध आत्मतत्त्व आदिका सारभूत अर्थग्रहण करके वापिस लौट आये थे। उन्होंने अन्तस्तत्त्व और बाह्यतत्त्वकी मुख्यता और गौणता का ज्ञान करानेके लिए अथवा शिवकुमार महाराज आदि संक्षेप रुचि वाले शिष्योंके प्रतिबोधके लिए पञ्चास्ति काय प्राभृत शास्त्रकी रचना की थी।'
कुन्दकुन्द स्वामीके सम्बन्धमें ग्रन्थोंसे जो प्रामाणिक सूचना प्राप्त होती है वह ऊपर संकलित की गई है। इसके सिवाय शिलालेखोंसे भी कुछ बातें ज्ञात होती हैं जो प्रायः उक्त बातों की ही समर्थक हैं। उनका उल्लेख आगे यथास्थान किया जायेगा।
परम्परागत कथा भी कुन्दकुन्दके विषयमें पाई जाती है। ब्रह्म नेमिदत्तके आराधना कथाकोशमें शास्त्र दानके फलके रूपमें एक कथा आई जो इस प्रकार है
भरतक्षेत्रके कुरुमरई ग्राममें एक गोविन्द नामका ग्वाला रहता था। एक बार उसने जंगलमें एक गुफामें एक जैनग्रंथ रखा देखा। उसने उसे उठा लिया और पद्मनन्दि नामके एक महान् आचार्यको दे दिया। उस ग्रंथकी यह विशेषता थी कि आचार्य देखकर अन्तमें उसे उसी गुफामें रख देते थे। फलतः पद्यनन्दिने भी उस ग्रन्थको उसी गुफामें रख दिया। गोविन्द ग्वाला उसकी प्रतिदिन १. 'जयउ रिसि पउमणंदी जेण महातच्चपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ समप्पिओ भव्वलोयस्सा" २. “अथ श्री कुमारनन्दिसिद्धान्तदेवशिष्यः प्रसिद्धकथान्यायेन पूर्वविदेहं
गत्वा वीतरागसर्वज्ञश्रीमंदरस्वामितीर्थकरपरमदेवं दृष्ट्वा तन्मुखकमलविनिर्गतदिव्यवाणी-श्रवणावधारितपदार्थाच्छुद्धात्मतत्त्वादिसारार्थ गृहीत्वा पुनरप्यागतः श्रीमत्कुन्डकुन्दाचार्यदेवैः पद्मनन्द्याद्यपराभिधेयरन्तस्तत्त्ववहिस्तत्त्वगौणमुख्यप्रतिपत्यर्थ अथवा शिवकुमारमहाराजादिसंक्षेपरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थ विरचिते पञ्चास्तिकायप्राभृतशास्त्रे"-पञ्चास्ति० टी० १ पृ० ।