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९६ : जेनसाहित्यका इतिहास
तत्त्वज्ञान विषयक जैनसाहित्यका | चूँकि कुन्दकुन्दाचार्य दोनोंके पुरस्कर्ता हैं अतः उनका विस्तृत इतिवृत्त आदि आगे दिया जाता है ।
आचार्य कुन्दकुन्द
१. आचार्य कुन्दकुन्दके विषयमें उनके ग्रन्थोंसे कुछ भी ज्ञात नहीं होता । उसमें उन्होंने अपना नाम तक भी नहीं दिया । केवल एक बारस अणुवेक्खा और बोधपाहुड हमारे उक्त कथनके अपवाद हैं । बारस अणुवेक्खाकी अन्तिम गाथामें उनका नाम आता है तथा बोध पाहुडकी अन्तिम गाथा में श्रुतकेवली भद्रबाहुका जयकार किया है और उससे पूर्वकी गाथामें ग्रन्थकारने अपनेको भद्रबाहुका शिष्य बतलाया है । इन उल्लेखोंसे केवल इतना ज्ञात होता हैं कि ग्रन्थकारका नाम कुन्दकुन्द है और वे भद्रबाहुके शिष्य थे ।
२. टीकाकार अमृतचन्द्रने ग्रन्थकारका नाम तक नहीं लिया । तब अन्य बातोंकी जानकारी की तो उनसे आशा ही कैसे की जा सकती है ?
३. इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में षट्खण्डागम और कसायपाहुड नामक सिद्धान्त ग्रन्थोंके रचे जानेका इतिवृत्ति देकर आगे लिखा है कि इस प्रकार ये दोनों सिद्धान्त ग्रन्थ कौण्डकुन्दपुरमें पद्मनन्दि मुनिको प्राप्त हुए और उन्होंने षट्टखण्डागमके आद्य तीन खण्डों पर छँ हजार श्लोक प्रमाण परिकर्म नामक ग्रन्थकी रचना की ।
४. देवसेनने अपने दर्शनसारमें लिखा है कि यदि पद्मनन्दि स्वामी सीमन्धर स्वामीसे प्राप्त हुए दिव्य ज्ञानसे प्रवोधित न करते तो श्रमण सुमार्गको कैसे जानते ।
१. ' सद्दवियारो हूओ भासासुत्तेसु जं जिणे कहियं ।
सो तह कहियं णायं सीसेण य भद्द बाहुस्स ॥ ६१ ॥ बारसअंगवियाणं चौदसपुवंर्गावपुलवित्थरणं ।
सुयणाणिभद्द बाहू गमयगुरू भयवओ जयउ ॥ ६२ ॥ - बो० पा० २. ' एवं द्विविधो द्रव्यभावपुस्तकगतः समागच्छन् ।
गुरुपरिपाट्या ज्ञातः सिद्धान्तः कुण्डकुन्दपुरे ॥ १६० ॥ श्री पद्मनन्दिमुनिना सोऽपि द्वादशसहस्रपरिमाणः । ग्रन्थपरिकर्मकर्ता षट्खण्डाद्यत्रिखण्डस्य ।। १६१ ॥ - श्रुताव० ३. 'जइ पउमगंदि णाहो सीमंधरसामिदिव्बणाणेण ।
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ॥ ४३ ॥ - ६० सा०