________________
द्रव्यानुयोग (अध्यात्म) विषयक मूल साहित्य : ९५ अवशिष्ट बचे विशकलितांश थे वैसे ही द्रव्यानुयोग विषयक साहित्यका मूल भी पूर्वोके अवशिष्टांश ही थे। उन्हींके आधार पर उत्तरकालमें द्रव्यानुयोग विषयक साहित्यकी रचना होकर उसका संपोषण एवं संवर्धन हुआ।
उसका प्रारम्भ आचार्य कुन्दकुन्दकी कृतियोंसे होता है। जैसे करणानुयोग विषयक साहित्यको रचनेका आद्य श्रेय आचार्य गुणधर तथा भूतबली पुष्पदन्तको प्राप्त है । वैसे ही द्रव्यानुयोग विषयक साहित्यकी रचना करनेका श्रेय भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यको प्राप्त है । कुन्दकुन्दाचार्य एक बहुत ही समर्थ और प्रभावक आचार्य हुए हैं। दिगम्बर परम्परामें तो भगवान महावीर और गौतम गणधरके पश्चात् उनका ही नाम विशेष आदरसे लिया जाता है । यथा
मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।। अतः उनके जीवनसे ही द्रव्यानुयोग विषयक साहित्यके इतिहासका आरम्भ होता हैं।
द्रव्यानुयोग विषयक साहित्यको मूलरूपसे दो भागोंमें बांटा जा सकता हैएक अध्यात्म विषयक और एक तत्त्वज्ञान विषयक । आचार्य कुन्दकुन्द इन दोनोंके ही पुरस्कर्ता हैं । एक ओर उन्होंने समय प्राभृतके द्वारा जैन अध्यात्मका प्रस्थापन किया तो दूसरी ओर प्रवचनसार आदिके द्वारा जैन तत्त्वज्ञानको मूर्त रूप दिया। जयसेनाचार्यने पञ्चास्तिकायकी टीकामें अध्यात्म शास्त्र और आगम शास्त्रमें भेद बतलाते हुए लिखा है कि-'मेरे ज्ञानमें आत्मा है, मेरे दर्शनमें आत्मा है, मेरे चारित्रमें आत्मा है, मेरे संवरमें और योगमें आत्मा है', इत्यादि रूपसे अभेद रत्नत्रयका जिसमें कथन हो वह अध्यात्म शास्त्र है और छ द्रव्योंका सम्यक् श्रद्धान और ज्ञान तथा व्रतादिका अनुष्ठान रूप भेद रत्नत्रय का जिसमें कथन हो उसे आगम शास्त्र कहते हैं।' अतः आत्ममूलक कथन अध्यात्म शास्त्रमें लिया जाता है ।
यहाँ प्रथम अध्यात्म विषयक जैनसाहित्यका इतिहास दिया जायेगा, पश्चात् १. 'अयमत्र भावार्थ:-'आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य । आदा
पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे' एवं प्रभृत्यागमसारादर्थपदानामभेदरत्नत्रयप्रतिप्रादकानामनुकूलं यत्र व्याख्यानं क्रियते तदध्यात्मशास्त्र भण्यते ।........ वीतरागसर्वज्ञप्रणीतषड्द्रव्यादि सम्यश्रद्धान-ज्ञान-व्रताद्यनुष्ठानभेदरत्नत्रयस्वरूपं यत्र प्रतिपाद्यते तदागमशास्त्र भण्यते-पञ्चास्ति० टी० । पृ० २५५ ।