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________________ जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग द्वितीय अध्याय द्रव्यानुयोग ( अध्यात्म) विषयक मूल साहित्य द्वादशाङ्ग श्रुतके अन्तर्गत आत्मप्रवाद पूर्वमें अध्यात्म-विषयक विवेचन समाहित था। आचार्य कुन्दकुन्दने उसी आधारको ग्रहण कर 'समयसार' जैसे महत्त्वपूर्ण आध्यात्मिक ग्रन्थोंकी रचना की। कुन्दकुन्दके पश्चात् पूज्यपाददेवनन्दि, जोइन्दु आदिने इस विषयका पर्याप्त निरूपण किया। इस प्रकार अध्यात्म-विषयक मूल-ग्रन्थोंका प्रणयन कई शताब्दियों तक होता रहा । इस अध्यायमें हम द्रव्यानुयोगसे सम्बद्ध अध्यात्म-विषयक मूल साहित्यका संक्षिप्त इतिवृत्त प्रस्तुत कर जीवनोत्थानके साथ इस साहित्यका सम्बन्ध प्रतिष्ठित करेंगे। उद्गम जिसमें जीव-अजीव, पुण्य-पाप, बन्ध-मोक्ष आदि तत्त्वोंका कथन हो उसे द्रव्यानुयोग कहते हैं । करणानुयोग विषयक साहित्यकी तरह द्रव्यानुयोग विषयक जैनसाहित्य भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। भगवान महावीर उक्त तत्त्वोंके प्रधान ज्ञाता और प्रवक्ता थे। इन्द्रभूति' गौतम जो वेद-वेदांगमें पारंगत थे, जीवअजीव विषयक शंकाकी निवृत्तिके लिए ही भगवान महावीरके पादमूलमें उपस्थित हुए थे और शंकाका समाधान होने पर उन्होंने भगवानके पादमूलमें जिन दीक्षा लेकर उनका शिष्यत्व स्वीकार किया था और उनके प्रधान गणधरका पद सुशोभित किया था। ___इन्द्रभूति गौतम गणधरने भगवान महावीरके उपदेशोंको जिन वारह अंगोंमें निबद्ध किया था, उनमेंसे बारहवां अंग दृष्टिवाद द्रव्यानुयोगसे ही विशेष रूपसे सम्बद्ध था। इस अंगके अन्तिम ज्ञाता एकमात्र श्रुतकेवली भद्रबाहु थे। उनके स्वर्गवासके पश्चात् क्रमसे यह अंग विलुप्त हो गया। किन्तु जैन परम्परामें द्रव्यानुयोग विषयक जो साहित्य रचा गया उसका मूल यह दृष्टिवाद अंग ही था। जैसे करणानुयोग विषयक साहित्यका मूल दृष्टिवाद अंगके अन्तर्गत पूर्वोके १. 'लोयालोयाण तहा जीवाजीवाण विविहविसयेषु । संदेहणासणत्यं उवगद सिरिवीर चलणमूलेण ।।७७॥'-ति०प० १ ।
SR No.010295
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages411
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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