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भूगोल-खगोल विषयक साहित्य : ९३ वालेसु य दाटीसु य पक्खीसु य जलयरेसु उववन्ना
संखिज्जा उठिईया पुणो वि नरयाउया हुंति ॥ १७९३ ।। ये दोनों गाथाएं मूलाचारके बारहवें अधिकारकी गाथा ११४-११५ हैं । इसी प्रकरणके अन्तर्गत गाथा १०८७ में बतलाया है कि सातवीं पृथ्वीसे निकल कर जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है । त्रिलोयपण्णत्ति ( २।२९२ ) में भी ऐसा पाया जाता है । किन्तु षट्खण्डागम, तत्त्वार्थवार्तिक आदि दिगम्बर ग्रंथोंमें उसका स्पष्ट निषेध है। इसी तरह उक्त प्रकरणमें गाथा १०८८ में लिखा है कि प्रथम नरकसे निकल कर चक्रवर्ती, द्वितीयसे निकल कर केशव, बलभद्र हो सकता है। किन्तु दिगम्बर ग्रन्थोंमें इसका निषेध है।
द्वार १९४ में देवोंकी स्थितिका वर्णन है । द्वार १९५ में उनके भवनादिका कथन है। आगेके द्वारोंमें उनकी लेश्या, ज्ञान, अवधि ज्ञान, उत्पत्ति विरह काल आदिका कथन है । द्वार २६२ में अन्तर्वीपोंका कथन है। द्वार २६६ में देवोंके प्रवीचारका कथन है। द्वार २७२ में पातालोंका कथन है।
इस तरह इसमें लोकानुयोग सम्बन्धी विषयोंका यत्र-तत्र वर्णन किया गया है। रचयिता तथा समय :
ग्रन्थकी अन्तिम प्रशस्तिमें ग्रन्थकारने अपना नाम नेमिचन्द्र दिया है । इनके गुरुका नाम आम्रदेव था। और गुरुके गुरुका नाम जिनचन्द्रदेव था। इन्होंने उत्तराध्ययन सूत्रकी सुखबोध नामकी वृत्ति भी बनाई है। इस वृत्तिमें इसका रचना काल ११२९ दिया है । तथा एक महावीर चरित्र भी प्राकृत भाषामें रचा है। उसमें उसका रचनाकाल ११४१ विक्रम सम्वत् दिया है । अतः इनका समय विक्रम की बारहवीं शताब्दीका पूर्वार्ध जानना चाहिये ।