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९२ : जैन साहित्यका इतिहास
नामके भट्टारकोंका उल्लेख मिलता है । शायद इसीसे प्रेमीजी ने सिंहसूर नामको संक्षिप्त मानकर पूरा नाम सिंहनन्दि या सिंहकीर्ति होनेकी संभावना की है और उनका समय १५वीं १६वीं शताब्दी अनुमान किया है ।
श्री प्रेमीजीने लिखा है कि स्व० सेठ माणिक चन्द जीके चौपाटीके मंदिर - में लोकविभागकी जो हस्त लिखित प्रति है वह भट्टारक भुवनकीर्तिके शिष्य ज्ञानभूषणकी लिखी हुई है ।
ज्ञान भूषणके शिष्य और भुवनकीर्तिके प्रशिष्य विजयकीर्तिके वि० सं० १५५७ और १५६१ के दो मूर्ति लेख उपलब्ध हैं । इससे पहलेके वि० सं० १५३४, ३५, ३६ के मूर्तिलेखोंमें भट्टारक ज्ञान भूषणका नाम है । अतः भट्टारक ज्ञानभूषण विक्रमकी १६वीं शताब्दीके पूर्वार्धमें अवश्य वर्तमान ये । उससे पहले संस्कृत लोकविभाग रचा जा चुका था । अतः विक्रमकी ग्यारवीं शताब्दीके पश्चात् और १६वीं शताब्दीसे पूर्व उसकी रचना हुई है । प्रवचन' सारोद्धार :
प्रवचन सारोद्धार श्वेताम्बरीय साहित्यमें एक प्रतिष्ठित ग्रन्थ माना जाता है । इसमें २७६ द्वार और १५९९ प्राकृत गाथाएं हैं । जैसा इसके नामसे प्रकट है यह एक संग्राहक ग्रंथ है । ग्रन्थकारने इसमें अनेक विषयोंका संग्रह किया है । इसके द्वार १५८ में पत्योपमका, १५९ में सागरोपमका, द्वा० १६० अवसर्पिणी कालका और १६१ में उत्सर्पिणी कालका कथन है ।
इसमें पल्यके तीन भेद किये हैं-उद्धार पल्य, अद्धा पल्य और क्षेत्र पल्य । तथा बादर और सूक्ष्मके भेदसे प्रत्येक पल्यके दो दो भेद किये हैं । दिगम्बर साहित्य में तथा श्वे० जोतिष्करण्डमें ये भेद नही पाये जाते । हाँ, अनुयोग द्वार सूत्रमें पाये जाते हैं ।
द्वार १६३ में पन्द्रह कर्म भूमियोंको, द्वा० १६४ में तीस अकर्म भूमियोंको गिनाया है । द्वार १७२ से १८४ तक नारकियोंके आवास, आयु, लेश्या, अवधि ज्ञान, जन्म मरणका अन्तर वगैरहका कथन है । द्वार १८१ में सातवीं पृथिवीसे निकल करके नारकी जीव तिर्यञ्चों में उत्पन्न होता है, यह बतलानेके लिये आई दो गाथाएँ इस प्रकार हैं
ट्टियाउ संता नेरइया तमतमाओ पुढवीओ ।
न लहंति माणुसत्तं तिरिक्खजोणि उवणमंति ।। १०८९ ।।
१. सिद्धसेनसूरि कृत वृत्तिके साथ यह ग्रन्थ दो भागों में सेठ देवचन्द लालचन्द जैन पुस्तकोद्धार फण्डसे प्रकाशित हुआ है ।