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________________ मैंने यह इतिहास आजसे वीस वर्ष पहले लिखना शुरू किया था । उस समय मैं लिखता चला गया और फिर उसे व्यवस्थित करनेकी रुचि भी नही हुई क्योकि प्रकाशनकी तो कोई आशा नहीं थी। लिखकर समाप्त करनेके दस वर्ष पश्चात् जव उसके प्रकाशनकी वात चली तो मैं उस लिखे विषयसे दूर चला गया था, मेरी स्मृतिमे वह नही था। उसमें मन भी नही लगता था। तब यह तय हुआ कि डॉ. नेमिचन्द शास्त्रीके साथ एक वार उसका पारायण कर लिया जाये। स्वर्गवासी होनेके तीन मास पूर्व वह कुछ दिन वनारसमें ठहरे और उनकी तथा डॉ० कोठियाकी उपस्थितिमें उसे व्यवस्थित किया गया। तव किसे कल्पना थी कि डॉ० नेमिचन्द शास्त्रीके साथ यही अन्तिम संगोष्ठी है । आज इसके प्रकाशनके समय उनकी स्मृति विशेप रूपसे होना स्वाभाविक है। वह भी जैनसाहित्यरूपी महलके एक स्तम्भ थे। उनके पश्चात् ही डॉ० गुलाबचन्द चौधरी भी स्वर्गवासी हो गये । जैनसाहित्य और इतिहासके वे भी एक सुलेखक विद्वान् थे। इन सबके अभावमें जैनसाहित्यका यह इतिहास प्रकाशित होनेसे भी एक तरहका दु ख ही होता है कि अब इसको आगे गति कौन देगा? दि० जैन समाजमें एक वर्ग ऐसा है जो अपनेमें ही मग्न रहता है और विश्वमें क्या होता है, इसे देखकर भी नही देखता। दि० जैनसाहित्य कितना पिछड गया है, सार्वजनिक क्षेत्रमें उसका मूल्याकन करनेकी ओरसे कितना अज्ञान या उपेक्षा है इसे अनुभव करनेवाले भी इने गिने है। डॉ० उपाध्ये देश विदेशके जर्नल्समें जैनसाहित्यके विपयमे लिखते रहते थे। उनके पश्चात् तो कोई ऐसा विद्वान् दृष्टिगोचर नहीं होता। अत अव यह पिछडना और भी वढेगा। इस ओर मै उदीयमान जैन विद्वानोका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ । अस्तु कर्मसिद्धान्तका विषय सूक्ष्म है। आज तो उसके अध्येता भी अत्यन्त विरल है। तव मेरे इस इतिहासको कौन पढेगा यह मैं नहीं जानता। किन्तु इसे देखकर भी यदि किन्हीकी साहित्यिक इतिहास विषयक रुचि जाग्रत हुई तो मैं अपने श्रमको सफल समझूगा। __ जव पीठिकाका प्रकाशन हुआ था तो उसमें जो खर्चेकी विगत दी गई थी, उसमें पारिश्रमिक मध्ये दस हजार रुपये दिखाये गये थे। उसकी कोई विगत नही दी गई थी और न उस विपयमे कुछ लिखा ही गया था। फलत एक आवाज समाचार पत्रोमे उठाई गई कि जैनसाहित्यके इतिहासको पूर्वपीठिकाका पारिश्रमिक मुझे दस हजार रुपया दिया गया है। ग्रन्थमालाकी ओरसे उसका स्पष्टीकरण किया गया। यहाँ मैं अपने उन मित्रोकी गलतफहमी दूर करनेके लिये यह स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि यह भाग और इसका आगामी दूसरा भाग भी पूर्व
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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