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लेखकके दो शब्द
जैन साहित्य के इतिहासको पूर्वपीठिका सन् १९६३ में प्रकाशित हुई थी । अव बारह वर्षोंके पश्चात् जैनसाहित्यका यह करणानुयोग विपयक इतिहास प्रकाशित हो रहा है, यह भी मेरे लिये परम सन्तोष और प्रसन्नताको वात है । मुझे तो इसके प्रकाशनकी कोई आशा ही नही थी, क्योंकि उक्त प्रकाशनके साथ ही श्री गणेशवर्णी ग्रन्थमालाका कार्य ठप्प जैसा हो गया था । किन्तु सौभाग्यवश उसके मंत्रित्वका भार डॉ० प० दरबारीलालजी कोठियाने उठा लिया और उन्हीके प्रयत्नके फलस्वरूप मेरा यह श्रम रद्दीकी टोकरीमें जानेसे बच गया । यह करणानुयोग अन्तर्गत केवल कर्मसिद्धान्त विपयक साहित्यका ही इतिहास है । लोकानुयोग विपयक साहित्यका इतिहास इसके दूसरे भागमें आयेगा । वह भी प्रेस में है और यदि वर्द्धमान मुद्रणालय के मालिक की कृपा दृष्टि रही तो शीघ्र ही प्रकाशित हो जायगा और मैं उसे प्रकाशित हुए अपनी आँखोंसे देख सकूँगा ।
दि० जैनसमाजमे विद्वानोकी तो कमी नही है किन्तु जैनसाहित्य और उसके इतिहासके प्रति विशेष अभिरुचि नही है । दि० जैनसमाजमें भी चरित्रके प्रति तो आदरभाव है किन्तु ज्ञानके प्रति आदरभाव नही है । इसीसे जहाँ दि० जैनमुनि - मार्ग वृद्धि पर है वहाँ जैन पण्डित धीरे-धीरे कालके गालमें जाते हुए समाप्तिकी ओर बढ रहे हैं । दि० जैनमुनिमार्ग पर धन खर्च करनेसे तो श्रीमन्तोको स्वर्ग सुखकी प्राप्तिकी आशा है किन्तु दि० जैन विद्वानोके प्रति धन खर्च करनेसे उन्हें इस प्रकारकी कोई आशा नही है। फलत निर्ग्रन्थोके प्रति तो धनिकोके द्रव्यका प्रवाह प्रवाहित होता है और गृही जैन विद्वानोंको आजकी महँगाई में भी पेट भरने लायक द्रव्य भी कोई देना नही चाहता । इससे विद्वान् तैयार होते है और समाजसे विमुख होकर सार्वजनिक क्षेत्र अपना लेते है । वहाँ उन्हें धन-सम्मान दोनो मिलते है । ऐसे में साहित्यकी सेवा तो वही कर सकता है जिसे उससे अनुराग होता है । ऐसे अनुरागी थे डॉ० हीरालाल और डॉ० उपाध्ये | किन्तु आज दोनो ही नही है । डॉ० हीरालालजीके पश्चात् डा० उपाध्येके स्वर्गत हो जानेसे दि० जैनसमाजका साहित्यिक क्षेत्र सूना जैसा हो गया है। उनकी सव साहित्यिक प्रवृत्तियाँ नि शेप हो गई है और ग्रन्थमालाएँ अनाथ जैसी हो गई है ।
डॉ० उपाध्येसे पहले डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री तो एकदम असमयमे ही स्वर्गवासी हो गये ।