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छक्खडागम ४५
'इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे इतना ही ज्ञात होता है कि वर्षावास समाप्त होनेपर दोनो ही मुनि दक्षिणकी ओर विहार कर गये और वे करहाट पहुंचे । करहाटकको कुछ विद्वानोने सितारा जिलेका करहाड या कराड और कुछने महाराष्ट्रका कोल्हापुर बतलाया है । यह नगर प्राचीन समयमें विद्याका उत्कट स्थान रहा है । यहाँ आचार्य समतभद्र भी पहुचे थे।३।।
पुष्पदन्ताचार्यका भानजा करहाटकमें निवास करता था। अत बहुत मम्भव है कि आचार्य पुष्पदन्तका जन्म उसीके कही आस-पास रहा हो । दूसरी बात यह है कि धरसेनाचार्यने अपना पत्र महिमानगरीमे सम्मिलित दक्षिणापथके आचार्योंके पास भेजा था । और आध्रदेशकी वेणा नदीके तटसे पुष्पदन्त और भूतवलि उनके पास गये थे । वर्तमान सतारा जिलेमें वेण्णा नामकी नदी भी है और उसी जिलेमे महिमा नामक ग्राम भी है । अत यह बहुत सम्भव है कि यह महिमानगढ ही प्राचीन महिमानगरी हो । अतएव सितारा जिलेका करहाटक प्रतीत होता है ।
वनवासदेश उत्तर करनाटकका प्राचीन नाम है, वहाँ कदम्ववशका राज्य था और उसकी राजधानी बनवास थी। इस देशमें ही पुष्पदन्तने 'वीसदि' सूत्रोकी रचना की और जिनपालितको उन्हे पढाकर भूतबलिके पास भेजा। भूतबलिने 'विंशति' सूत्रोको देखा और जिनपालितसे ज्ञात किया कि पुष्पदन्ताचार्यकी अल्पायु शेष है। अतएव कर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होनेके भयसे उन्होने द्रव्यप्रमाणानुगमको आदि लेकर ग्रन्थरचना की। ___ इस अध्ययनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि छक्खडागम सिद्धान्तका आरम्भिक भाग तो वनवासदेशमें और अवशेप ग्रन्थ द्रविड देशमें रचा गया होगा। ग्रन्थरचना-विभाजन और रचयिता
धवलाकार वीरसेन स्वामीने लिखा है कि आचार्य पुष्पदन्तने "वीसदि" सूत्रोकी रचना की और इन सूत्रोको देखकर आचार्य भूतवलिने द्रव्यप्रमाणानुगम आदि अवशिष्ट ग्रन्थ की रचना की । छक्खडागमके प्रथम खण्ड जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वारोमेंसे प्रथम अनुयोगद्वारका नाम सत्प्ररूपणा और दूसरेका नाम द्रव्यप्रमाणानुगम है। स्पष्ट है कि प्रथम अनुयोगद्वार सत्प्ररूपणाकी रचना पुष्पदन्ताचार्गने की है । 'वीसदि' सूत्रसे अभिप्राय सत्प्ररूपणाका लेना चाहिए। १ जग्मतुरथ करहाटे तथो स य पुष्पदन्ननाम मुनि । जिनपालिताभिधान दृष्ट्वाऽमौ
भागिनेय स्व ।। दत्वा दीक्षा तस्मै तेन सम देशमेत्य वनवासम् । तस्थौ भूतबलिरपि मधुराया द्रविड.
देशेऽस्थात् ॥ श्रुतावतार श्लो० १३२ १३३ २ जै० सा० इ० वि० प्र० पृ० १७२ । ३ 'प्राप्तोह करहाटक बहुभट विद्योत्कट सकट ।'
जै० सा० इ० वि० प्र० पृ० १७४ । ४ पट ख० पु. १, पृ०७१ ।