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________________ ४८० : जनसाहित्यका इतिहास यथा विद्यानन्दि सुमत्यादि भूप लक्ष्मीन्दुराद् गुरुन् । वीरेन्दु-शानभूपं हि वन्दे सुमतिकोतियुक् ॥२॥ इसमें विद्यानन्दि, मल्लिभूपण, लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र, शानभूपण और सुमति कीतिको नमस्कार किया है। प्रगस्तिमे लिसा है मूलगघे महासाघुर्लक्ष्मीपन्नो यतीग्यर । तम्य पट्टे च वीरेन्द्र विवुधो विश्ववन्दित ॥१॥ तदन्वये दयाम्भोधि निभूणे गुणाकर । टीका हि कर्मकाण्डसा चक्रे मुमतिकीतियुक् ।।२।। __ अर्थात् मूलसघमे महागाधु लक्ष्मी चन्द्र यतीश्वर हुए । उनके पट्ट पर विश्ववन्ध वीरनन्द्र हुए । उनके वगमें दयालु गुणागार मानभूषण हुए। उन्होंने मुमति कीतिके साथ कर्मकाण्डकी टीका रची। ___ इममे स्पष्ट है कि टीका रचयिता ज्ञानभूषण और मुमतिर्कीति दोनो है । यह जानभूपण ईडरकी गद्दी वाले ज्ञानभूगण नहीं है किन्तु सूरत की गद्दीवाले ज्ञान भूपण है । उन्हीके गिज्यका नाम सुमतिकोति था। टीकाके आदि और अन्तिम श्लोकोमे इसे कर्मकाण्डगी टीका कहा है और इसी लिये मूल ग्रन्यका कर्ता सिद्धान्तपरिज्ञानचक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्र कविको बतलाया है। सिद्धान्त और चक्रवर्तीके वीचमें जो परिमान पद डाल दिया गया है वह सिद्धान्त चक्रवर्तीका अर्थ स्पष्ट करने के लिये ही डाला गया जान पड़ता है। किन्तु वास्तवमें यह कर्मकाण्डके आधार पर संकलित कर्मप्रकृतिको टीका है। यह टीका गोम्मटसारकी टीकाको देखकर बनाई गई है क्योंकि प्रशस्तिमें इस वातको स्वीकार किया है । यथा टीका गोमट्टसारस्य विलोक्य विहित ध्रुव । पठन्तु सज्जना सर्वे भाज्यमेतन्मनोहरम् ॥३॥ अर्थात् गोम्मट्टसारको टीकाको देखकर रचे गये इस मनोहर भाज्यको सब सज्जन पढे । गोमट्टसारकी नेमिचन्द्र कृत जीवतत्त्व प्रदीपिका टीकाके साथ मिलान करनेसे यह बरावर स्पष्ट हो जाता है कि एकको देखकर दूसरीकी रचनाकी गई है। उदाहरणके लिये यहाँ केवल दूसरी गाथाकी दोनो टीकाएं देते है. नेमि० टी०-प्रकृति शील स्वभाव इत्यर्थ । सोऽपि कारणान्तरनिरपेक्षता अग्निवायु जलाना उर्वतिर्यग्निम्नगमनवत् । सहि स्वभाववन्तपेक्षते इति । कयो
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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