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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४७९
पचसंग्रह वृत्ति ___इस वृत्तिकी जो प्रति हमें देखनेको प्राप्त हुई उसके प्रारम्भके ४८ पत्र नही है और उनके स्थानमें पचसग्रह मूलके ४९ पत्र रख दिये गये है। अत टीकाके प्रारम्भके विपयमें कुछ कहना शक्य नही है । टीकाके अन्तका सन्धिवाक्य इस प्रकार है
"इति श्री पचसग्रहापरनाम-लघुगोम्मटसार सिद्धान्तग्रन्थटीकाया कर्मकाण्डे सप्तति नाम सप्तमोऽधिकार । इति श्री लघुगोम्मटसारटीका समाप्ता।'
सर्वत्र सन्धि वाक्योमे ग्रन्थको लघु गोम्मटसार कहा गया है और उसका दूसरा नाम पचसग्रह बतलाया है । गोम्मटसारकी टीकाकी प्रशस्तिमें भी गोम्मटसारका अपर नाम पचसंग्रह वतलाया गया है। यथा-'इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्रविरचिताया गोम्मटसारपरनामपचसग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाया।'
शायद पचसग्रहके टीकाकारने पचसग्रहको लघु गोम्मटसार समझा है । किन्तु अपनी टीकामें उन्होने पचसग्रहका निर्देश पंचसग्रह नामसे ही किया है । यथा'इदमुपशमविधान गोम्मटसारे प्रीक्तमस्ति । पचसग्रहोक्त भावोऽय कथ्यते ।'
फिर भी उक्त सन्धिवाक्य इस वातका साक्षी है कि उस समय भी गोम्मटसारको कितना ऊँचा स्थान प्राप्त था। शायद लोग इस वातकी कल्पना ही नही कर सकते थे कि गोम्मटसारसे भी कोई महान सिद्धान्त ग्रन्थ हो सकता है जिसपरसे गोम्मटसार सग्रहीत किया गया है । अस्तु,
धर्मपुरा दिल्लीके नये मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें सम्बत् १७९९ की लिखी हुई इसकी एक प्रति हमें देखनेको मिली । इस प्रतिमें उसकी अन्तिम प्रशस्ति नही है। किन्तु प० परमानन्दजीने अपने प्रशस्ति सग्रहमें उसकी प्रशस्ति दी है । प्रशस्ति के पश्चात् अन्तिम सन्धिवाक्य इस प्रकार दिया है-'इति श्री भट्टारक श्री ज्ञान भूपणविरचिता कर्मकाण्डग्रन्थटीका समाप्ता।'
नीचे टिप्पणमें लिखा है कि जयपुर और देहलीकी कितनी ही प्रतियोमें ज्ञान भूषणनामाकिता सूरिसुमतिकीर्ति विरचिता' ऐसा पाठ पाया जाता है जो ग्रन्थकी दोनो भट्टारको द्वारा सयुक्त रचना होनेका परिणाम जान पडता है (जै० प्र० पृ० १५६)।
ऐ० ५० सरस्वती भवन झालरापाटनकी ग्रन्थ नामावलिमें भी कर्म प्रकृति टीका 'सुमति कीर्ति युग् ज्ञानभूपणकृता' ऐसा लिखा हुआ है। ज्ञानभूपणके साथ 'सुमतिकीतियुक्' विशेपण लगानेका कारण यह है कि टीकाके आदिवाक्य और प्रशस्तिमें यही पद पाया जाता है