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४६२ जैनसाहित्यका इतिहास
ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें' उन्होंने अपने वश वगैरहका कथन किया है । पिताका नाम आभदेव था और माताका नाम वैजेणी था । वह वधेरवाल वशके थे । उन्होने मूल सघके श्री पूज्यपादके प्रसादसे आत्मशक्तिके अनुसार जिनोक्त शास्त्रोका ज्ञान प्राप्त किया था । यह ग्रहस्थ थे और जिन विम्ब प्रतिष्ठाचार्य थे । इनका संस्कृत भाषा विषयक ज्ञान परिपक्व नही था इसीसे उन्होने अपनी टीकामे आगम विरोधी के साथ ही साथ शब्द शास्त्रसे विरुद्ध कथनको भी शोधनेकी प्रार्थना मनीपियोसे की है ।
प्रशस्तिका अन्तिम श्लोक आशाधरजी की शैलीके अनुकरणको लिये हुए है और उसमें उन्ही की तरह 'शिवाशाधर' पदका प्रयोग भी किया गया है । आशाघर जी भी बघेरबालवशी थे । शायद इसी जाति स्नेहवश उनके नामका इस प्रकार प्रयोग किया गया है |
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सोमदेवने अपने स्थान और समयका कोई निर्देश नही किया फिर भी यह निश्चित है कि वह विक्रमकी चौदहवी शताब्दीके पश्चात् हुए है क्योकि जिस श्रतमुनिकी आस्रव त्रिभगी पर उन्होने टीका रची है उन्होने अपना परमागमसार वि० सं० १३९८में समाप्त किया था । अब विचारणीय यही है कि चौदहवी शताव्दीके पश्चात् वह कव हुए है ?
१ ' अमितगुणगण साध्वाभदेवाब्धिसोम विजयनिवररत्न काममुद्योतकारी । गतकलिलकलक सर्वदोष स्ववृत्त स जयति जिनविम्व स्थापनाचार्यचार्या (वर्ण) ॥ १ ॥
यथामरेन्द्रस्य पुलोमजा प्रिया नारायणस्याब्धिसुता वभूव । तथाभदेवस्य वैजेणिनाम्नी प्रिया सुधर्मा, सुगुणा सुशीला ॥२॥ तयो सुत सद्गुणवान् सुवृत्त सोमोऽमिध कौमुदवृद्धिकारी । व्याघेरवालबुनिधे सुरत्नं जीयाच्चिर सर्वजनीनवृत्ति ॥३॥ श्रीमज्जिनेोक्तानि समजसानि शास्त्राणि लेभे स यथात्मशक्त्या । श्रीमूलसघाब्धिविवर्धनेन्दो श्रीपूज्यपादप्रभुसत्प्रसादात् ॥४॥
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शब्दशास्त्रविरोधंयत् यदागमविरोधि च । न्यूनाधिकं च यत्प्रोक्त शोधित तन्मनीपिभि । श्रीसद्माघ्रियुगे जिनस्य नितरा लीन शिवाशाधर । सोम सद्गुणभाजन सविनय सत्यात्रदाने रत । सद्रत्नत्रययुक् सदा बुघमनाल्हादी चिर भूतले । नद्याद्येन विवेकिना विरचिता टीका सुवोधाभिधा ॥७॥