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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४६३ त्रिवर्णाचारके कर्ता भट्टारक सोमसेनने भी गुणभद्रसूरिका स्मरण किया है और उन्होने अपना त्रिवर्णाचार स० १६६७में तथा रामपुराण स० १६५६ में रचा है। इस परसे प० परमानन्दजीने सोमसेन और सोमदेवके ऐक्यकी सम्भावना पर विभगीसार टीकाका समय विक्रमकी सतरहवी शताब्दीका उत्तरार्ध माना है।
किन्तु प्रथम तो दोनोके नामोंमें भेद है। दूसरे, जब सोमसेन भट्टारक है तब सोमदेव गृहस्थ प्रतिष्ठाचार्य है। तीसरे, नया मन्दिर देहलीके भण्डारकी विभगीटीकाकी प्रतिमें उसका लेखनकाल विक्रम सम्वत् १६१५ लिखा है। अत सोमसेन और सोमदेव एक व्यक्ति नही हो सकते । सोमदेव सोमसेनसे पहले हुए है।
अत उक्त उल्लेखोके आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि सोमदेव विक्रम सम्वत्की १५वी और १६वी शताब्दीमें किसी समय हुए है। गोम्मटसारकी टीकाएँ कर्मकाण्डके अन्तमें एक गाथा इस प्रकार आती है
गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी ।
सो राओ चिरकाल णामेण य वीर मत्तडी ।।९७२।। इस गाथाकी जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका तथा तदनुसारिणी सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भापाटीका इस प्रकार है।
जी० प्र०-गोम्मटसार सूत्रलेखने गोम्मटराजेन या देशी भाषा कृता स राजा नाम्ना वीरमार्तण्डश्चिरकाल जयतु ।।
स च०-गोम्मटसार ग्रन्थके सूत्र लिखने विष गोम्मट राजाकरि जो देशी भापा करी सो राजा नामकरि वीर मार्तण्ड चिरकालपर्यन्त जीतिवत प्रवृत्तौ ।
इस परसे यह धारणा बनी कि चामुण्डरायने गोम्मटसारकी रचनाके समय उसपर देशी भापामें अर्थात् कनडीमें कोई वृत्ति रची थी और चामुण्डरायके नाम पर उसका नाम वीर मार्तण्डी था ।
जीवतत्त्व प्रदीपिकाके आरम्भिक मगलपद्यमें उसके रचयिताने कहा है कि मैं कर्णाट वृत्तिके आधारसे गोम्मटसारकी टीका करता हूँ । इस परसे उक्त धारणा को बल मिला और कतिपय विद्वान लेखकोंने यहा तक लिखा कि जीव० प्रदी१ 'नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूपण । वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाट
वृत्तित ॥१॥ कर्मकाण्ड भूमिका पृ० ५ (रा० शा० माला स० १९२८ ई०), जीवकाण्ड भूमिका, द्रव्यसग्रह अग्रेजी, भूमिका, पृ० ४१, जीवकाण्ड अग्रेजी, भू० पृ० ७, और गोम्मटसार, मराठी टीकाकी भूमिक, पृ० १ आदि ।