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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४६१ अर्थात् पहले जो श्रुतमुनिने कर्णाट भाषामें टीका लिखी थी, उसे सोमदेव लाटीय भाषामें रचता है।
श्रुतमुनिने स्वरचित आस्रवत्रिभगी पर कन्नड भाषामें टीका भी बनाई थी। मूडविद्री के जैन मठमें इसकी प्रति वर्तमान है और उसका ग्रन्थ न० २०४ है। उसी टीकाको सोमदेवने लाटी भाषामें रचा है। किन्तु सस्कृत भाषाके लिये लाटीया भापा शब्दका व्यवहार विचित्र ही है। लाटीया भापाका मतलव लाट देशकी भापा होता है । लाट गुजरातका प्राचीन नाम है । उसकी भाषाको लाटी भाषा कहना चाहिये । अस्तु, आगे एक श्लोक इस प्रकार है
प्रणिपत्य नेमिचन्द्र वृषभाद्यान् वीर पश्चिमान् जिनान् ।
सर्वान् वक्ष्ये सुभाषयाऽह विशदा टीका त्रिभग्याया ॥६॥ इसमें सुभापाके द्वारा त्रिभगीकी टीका रचनेकी प्रतिज्ञा की गई है। सुभाषासे तो सस्कृत भापाका ग्रहण हो सकता है किन्तु लाटीया भापासे सस्कृतका ग्रहण नहीं हो सकता । शायद टीकाकारने जिस भ्रष्ट सस्कृत भाषामे अपनी टीका रची है उसे लाटी भाषा कहा हो । किन्तु उसके लिए भी यह प्रयोग विचित्र ही है ।
देहलीके सेठके कूचेके जैन मन्दिरमें उक्त टीकाकी एक भाषा टीका भी है। उसे देखकर हमें लगा कि टीकाकारने उस भापा टीकाके लिये तो लाटीया भाषा शब्दका प्रयोग नही किया। क्योकि उस टीकामें किसी अन्य टीकाकारका नाम नही है और सस्कृत टीकाके अन्तमें जो प्रशस्ति है वह प्रशस्ति ज्योकी त्यो है उसकी भापा टीका नही की गई है। यदि कोई अन्य टीकाकार होता तो वह प्रशस्तिकी भी भाषा करता । खेद है कि उस प्रतिका प्रथमपत्र नही है यदि होता तो शायद इस विषय पर उससे विशेष प्रकाश पडता। रचयिता और समय
इस त्रिभगी टीकाके रचयिताका नाम सोमदेव है। ग्रन्थ टीकाके आदिमें उन्होने श्लोकमें, जो पीछे उद्धृत किया गया है, अपना नाम दिया है। उससे पहले श्लोक' ३ में उन्होने गुणभद्र सूरिको नमस्कार किया है। किन्तु उससे यह स्पष्ट नही होता कि गुणभद्र सूरि उनके गुरु थे।
१ कन्नड० ता० न० सू०, पृ० १० । २ 'कर्म द्रुमोन्मूलनदिक्करीन्द्र सिद्धान्तपाथोनिधिदृष्टपार ।
षत्रिंशदाचार्यगुणं प्रयुक्त नमाम्यह श्रीगुणभद्रसूरि ॥३॥'