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________________ ४६० · जैनसाहित्यका इतिहास सुमतिकीर्तिके उत्तराधिकारी गुणकीति थे । एक प्रतिमालेखसे प्रकट होता है कि वि० स० १६३२ में गुणकीति पट्टपर थे । सकलभूपणने सुमतिकीतिकी वडी प्रशसा की है। लिखा है वह वडे शीलवान, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय और सयमी थे । उनसे सव प्रसन्न रहते थे । आदि । विभगी टीका पीछे त्रिभगीसार नामरो सगृहीत जिन छै त्रिभगियोका निर्देश किया है, उनमेंसे आश्रवत्रिभगी तथा वन्ध उदय और सत्त्व विभगीकी टीकाकी कई प्रतियाँ धर्मपुरा दिल्लीके नये मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें वर्तमान है । यह टीका एक ही ग्रन्थके रूपमें है और उसके अन्तमे लिखा है 'इति त्रिभंगीसार टीका समाप्ता।' प्रारम्भकी आस्रव विभगीके रचयिता श्रुतमुनि है। किन्तु टीकाकारने उसे भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तीकी कृति समझकर बन्धोदयसत्त्वविभगीके साथ एक ग्रन्थके रूपमें सम्मिलित कर लिया जान पडता है, क्योकि आस्रवत्रिभगी टीकाके अन्तमें लिखा है-'इति मूलनेमिचन्द्रसिद्धान्तीकर्ता आस्रवत्रिभगी समाप्ता।' किन्तु प्रथम गाथाके 'वोच्छे ह' पद का अर्थ करते हुए लिखा है-'श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तिणा कथित अह सप्तपचाशदाश्रवा कथयाम (मि)।' ___अर्थात् श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके द्वारा कथित सतावन आस्रवोंको मैं कहता हूँ। श्रोनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने कर्मकाण्डमें सत्तावन प्रत्ययोका कथन किया है और उसीके आधारसे श्रुतमुनिने आस्रवत्रिभगीकी रचना की है। और इसलिये आस्रवत्रिभगीके मूलकर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती है । किन्तु आगे कर्ताका निरूपण करते हुए लिखा है-'उत्तरोत्तरकर्ता गुरु पूर्व क्रमागत सकलसिद्धान्तचक्रवर्ती अखडित रत्नत्रयाभरणभूपित मूलोत्तराराद (२) सकल गुण सम्पूर्ण श्रोनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तिना भट्टारकेणासन्नभव्यसंदोहस्योपकारार्थ श्रीमज्जिनागमात्युद्धारकरणाथं च ग्रन्थरचनानिमित्त ।' टीकाकारकी भाषा वहुत स्वलित है इससे उनका ठीक आशय समझने में कठिनाई होती है। आस्रवत्रिभगीके कर्ता श्रुतमुनिने अन्तिम गाथामे अपना नाम दिया है और उसका अर्थ करते हुए टीकाकारने 'सुदमुणिणा-श्रुतमुनिना' ऐसा लिखा है तथापि उन्होने अन्यत्र कही श्रुतमुनिको उसको रचयिता नही लिखा। टीकाके आरम्भ में एक श्लोक इस प्रकार है या पूर्व श्रुतटीका कर्णाटभापया विहिता। लाटीया भाषया सा विरच्यते सोमदेवेन ॥४॥
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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