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अन्तिम
इन मेरी
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उत्तरकालीन कर्म-माहिल ८५९
निश्चित है कि कि ० ६६२० में मान में और उस समय गुतकी
गद्दी पर
है। यह रात प्रा० प पहा गमः दिवारी नाका प्रथम नमना नाहिये ।
सारी जाने प्रभारीन्द्र बहाने । म० १० १६१३ म प्रतिकि
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है। प्रशस्तिम भने
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मुमकिन
बालागुरु हो महाक तथा
बे की जो होना निगम गुणतियोतिषांना गुगतिरीति जपना गुरु
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और
ऐसा प्रतीत
थे । नायद
है।
बाद
दृष्टि भी का भविष्य नकद
परनुमतिकति है।
पाई
शुभ दि० ० १६११ मे भट्टारा पगीन वे वह बात एक प्रतिमाप्राद होती है। तथा दि० ० १६२६ मे सुमतिकोतिर नहारा परपर विराजमान थे। उपदेश मालाकी रचनाओ नमय वि० न० १९२७ में गतिकोति गान थे । वहवृत्तिकी रचना पञ्चात् ही यह भट्टारक परपर विराजमान हुए ये ऐसा प्रतीत होता है क्योकि उनको प्रशस्ति वन तक नही है ।
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६ 'तथा गाधु सुभत्यादिकीर्तिना कृतप्रार्थना | गायकृता नमन शुभचन्द्रेण सूरिणा ||९||
भट्टारक पदाचा मूलगघे विदावरा । रमाविरेन्दु-चिद्रूप-गुरवां हि गणेशिन ॥ १० ॥ ' - जै०ग्र० प्र०म० भा० १, पृ० ४२-४३ ।
२ 'पट्ट तम्य प्रीणित प्राणिवगं शान्तो दात शीलशाली सुधीमान् । जीयात्सूरि श्री सुमत्यादिकोतिर्गच्छाधोग कनकान्ति कलावान् ॥२३१॥ —जै०न० प्र०मं० भा० १, पृ० २० ।
३ 'म० १६११ वर्षे माघ व ७ श्री मूलमधे नदिमधे सरस्वतीगच्छे वलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० विजयकीतिस्तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्र ।' - जै०प्र० ले०स०, ले० न० ६७७ ।
'रा० १६२६ वर्षे फाल्गुण सुदी ३ शुक्र श्री मूलसंघे भ० श्री सुमतिकीर्ति उपदेगात् ईडरवास्तव्य'' - प्रा० जै०ले० स०, पृ० २८ |