________________
उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४५५ टीकाके प्रारम्भमें भी यही गुरुपरम्परा दी है। उसमें पद्मनन्दि और देवेन्द्रकीतिका नाम नही है। __ किन्तु भट्टारक सकलभूपणने अपनी उपदेश रत्नमालाकी प्रशस्तिमें, ब्रह्म कामराजने जयपुराणको प्रशस्तिमें और भट्टारक शुभचन्द्रने अपनी प्रशस्तिमें जो गुरुपरम्परा दी है वह है-पद्मनन्दि, सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति और ज्ञानभूपण । ज्ञानभूपणके उत्तराधिकारी थे विजयकोति, उनके शुभचन्द्र और शुभचन्द्रके
सुमतिकीति ।
__श्रीयुत नाथूराजी प्रेमीने इन दोनो परम्पराओके ज्ञानभूपणको एक ही व्यक्ति माना है। किन्तु गुरुपरम्परा तथा कालक्रमको देखते हुए ये दोनो ज्ञानभूषण दो व्यक्ति प्रतीत होते है।
प्रथम गुरुपरम्पराके अनुसार ज्ञानभूषणके गुरु लक्ष्मीचन्द और वीरचन्द्र थे इसीसे सिद्धान्तसार भाष्यके मगलाचरणमे भी 'लक्ष्मीवीरेन्दुसेवित' के द्वारा उनका स्मरण ज्ञानभूपणने किया है। किन्तु दूसरी परम्पराके अनुसार ज्ञानभूषण के पूर्व गुरु भुवनकीर्ति थे।
तथा प्रथम गुरु परम्पराके अनुसार पद्मनन्दी और ज्ञानभूषणके मध्यमे पाँच व्यक्ति है किन्तु दूसरी परम्पराके अनुसार केवल दो ही व्यक्ति है। अत ये दोनो ज्ञानभूपण एक व्यक्ति नहीं हो सकते। उन दोनोको एक व्यक्ति मान लेनेसे समय सम्बन्धी कठिनाई उपस्थित होती है। जिसका खुलासा इस प्रकार हैसमय विचार ___ ज्ञानभूषणकृत तत्त्वज्ञानतरगिणीमें उसका रचनाकाल वि०स० १५६० दिया है। प्रेमी जीने लिखा है कि-'जैन धातु प्रतिमा लेखसग्रहमें प्रकाशित वीसनगर (गुजरात) के शान्तिनाथके श्वेताम्बर मन्दिरकी एक दिगम्बर प्रतिमाक लेखसे और पैथापुरके श्वेताम्वर मन्दिरको दि० प्रतिमाके लेखसे मालूम होता है कि वि सं १५५७ और १५६१में ज्ञानभूषण भट्टारक पद पर नही थे, किन्तु उनके शिष्य विजयकीर्ति थे और वे १५५७के पहले इस पदको छोड चुके थे। इसलिये तत्त्वज्ञान तरगिणीकी रचना उन्होने उस समय की है जब भट्टारक पदपर विजयकीर्ति थे।'
पूर्वोक्त जैनधातु प्रतिमा लेखसग्रह नामक ग्रन्थमें विक्रम सवत् १५३४, १५३५ और १५३६के तीन प्रतिमा लेख और भी है जिनसे मालूम होता है कि उक्त सवतोमें ज्ञानभूषण भट्टारक पद पर थे। भट्टारक पद छोडनेके बाद भी वह बहुत समय तक जीवित रहे ।'