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४५४ : जेनसाहित्यका इतिहास
हुए । उनके वशमें पद्मनन्दी हुए । उनके पट्ट पर विविजेन्द्रकीति विद्यानन्दि हुए, उनके पट्ट पर राज मान्य गल्लिभूषण हुए। फिर कमगे लक्ष्मीचन्द, वीरचन्द और ज्ञानभूषण हुए। इन्ही ज्ञानभूषणको प्रेरणागे सुमतिरुर्तिने प्राकृत पचसग्रहकी वृत्ति बनाई और ज्ञानभूषणने उनका गोधन किया ।
कर्मप्रकृतिको टीका ज्ञानभूषण और सुमतिकोति दोनोने बनाई है। उनमें भी गल्लिभूषण के पूर्वज विद्यानन्दि मे उक्त गुरु परम्परा दी है ।
अत सुमतिकोतिके गुर ज्ञानभूषण ही उक्त भाज्या रनयिता प्रतीत होते है । किन्तु श्रीनाथूरामजी प्रेमीने लिया है कि कारणा में जो सिद्धान्तगार भाष्यकी प्रति है उसमे मालूम होता है कि उसके कर्ना ज्ञानभूषण नहीं है, गुमतिकीर्ति है । और उसका मनोधन सुमतिकीर्ति के गुरु ज्ञानभूगणने किया है। ऐसा होना सभव है क्योंकि कर्मप्रकृतिको टीका भी ज्ञानभूपणने गुमतिपतिके गाय बनाई थी और प्रा० पंचगंग्रहको वृत्तिका उन्होंने गणोधन किया था । अत सिद्धान्तमार भाष्यकी रचना सुमतिकी तिने और संशोधन ज्ञानभूषणने किया हो तो कोई विशेष बात नही है | किन्तु ऐसी स्थिति सिद्धान्तगार भाष्यमे शुभतिकीर्तिका नाम कही दृष्टिगोचर न होना कुछ का पैदा करता है क्योकि शेप दोनों टीकाभमें ज्ञानभूपणके साथ सुमतिकोर्तिका भी नाम है । अस्तु,
ज्ञानभूपणको दो गुरु परम्पराएँ
प्रा० पचसग्रहको प्रशस्तिम, ज्ञानभूषणकी गुरु परम्परा इस प्रकार दी हैपद्मनन्दि, दिविजेन्द्र (देवेन्द्र) कीर्ति, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण | और ज्ञानभूषणके उत्तराधिकारी प्रभाचन्द्र थे । कर्मप्रकृति
१ 'विद्यानन्दि - सुमल्ल्या दिभूप- लक्ष्मीन्दु-सद्गुरून् ।
वीरेन्दु, ज्ञानभूपंहि वन्दे सुमतिकीतियुक् ॥ २॥ ' - फर्मप्र० टी० । २ ' इति श्रीसिद्धान्तसारभाप्य श्रीरत्नत्रयज्ञापनार्थं सुमतीन्दुना लिखितम् । सूरिवर श्रीरमरकीर्तिसमुपदेशात् श्रीमूलसंघवलात्कारगणाग्रणी श्रीमद्भट्टारक श्रीलक्ष्मीचन्द्रस्तत्पट्टपयोधिचचच्चन्द्रभट्टारक श्रीवीरचन्दस्तत्पट्टालंकार भट्टारक श्रीज्ञानभूपण श्री सिद्धान्तसार भाष्यं बल्लभजनवल्लभ मुमुक्षु श्री सुमतिकीर्ति विरचित शोधितवान् ।
टीका सिद्धान्तसारस्य सता सद्ज्ञानसिद्धये । ज्ञामभूप इमा वक्रे मूलसंघविदावर ॥ सिद्धान्तसार भाष्य च शोधित ज्ञान भूपण । रचित हि सुमत्यादि
॥ -- जै० सा० इ०, पृ० ३७९ ।