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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४०५ मूउविद्री प्रतिमे पाये जाने वाले उन मूनोको यथारथान ग्स देनेमे कर्मकाण्ड गा० २२ मे ३३ तामे जो अगम्बद्धता प्रतीत होती है वह दूर हो जाती है और राव गाथाएं सुरागत प्रतीत होने लगती है ।
दि० प्रा० पञ्चराग्रहके दूसरे अधिकारका नाम भी प्रकृति गमुत्कीर्तन है। उसके प्रारम्भमें चार गाथाएँ है । पहली मगल गाथाको छोटकर गेप तीनी गायाएं कर्मकाण्डम २०, २१, २२ नम्बरको लिये हुए विराजमान है। २२वी गायामें आचार्य नेमिचन्द्रने थोडा-सा परिवर्तन कर दिया है। नाम कर्मकी ९३ या १०३ प्रकृतिया लिपकर उन्होने कर्म पठतिमें निर्दिष्ट १५८ कर्म प्रकृतियोकी मान्यताका भी मग्रह किया है।
पञ्चगग्रहमें आठो कर्मोकी प्रकृतियोकी मख्या वतलाने वाली गायाके पश्चात् प्रकृतियोके नामादिका कयन गद्य मूत्री द्वारा ही किया गया है। उमी पद्धतिका अनुसरण नेमिचन्द्राचार्यने भी किया था, ऐमा मूढविडीको कर्मकाण्डकी प्रतिमे प्रतीत होता है। पञ्चसग्रहमे गय सूत्रोके द्वारा क्रमम सब प्रकृतियोका निर्देग किया है। कर्मकाण्डमे बीच बीचमे गाथासून देकर प्रकृतियोके सम्बन्धमे आवश्यक उपयोगी कथनोका भी मग्रह किया गया है।
जीव स्थानकी चूलिकाके अन्तर्गत भी प्रकृति समुत्कीर्तन नामक अधिकार है। पञ्चसग्रहका प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार उसीकी उपज है। और इन्हीकी उपज कर्मकाण्डका प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार है। उसमें जो गद्यसूत्र है वे उक्त ग्रन्योंके अन्तर्गत गद्यसूत्रोका ही सक्षिप्त रूप है। उनमें जो कही अन्तर किया गया है वह कर्मकाण्डकी दृष्टिसे ही किया गया है ।। ___ उल्लेखनीय अन्तर दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियोके क्रममें है । जी० स्था० चूलिका तथा पञ्चमग्रहमें निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला यह पांच निद्राओका क्रम है और कर्मकाण्डगत गद्य सूत्रमें, जो कि मूडविद्रीकी प्राचीन प्रतिमे उपलब्ध है-स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला, निद्रा और प्रचला यह क्रम है। उक्त क्रमको बदलनेका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें प्रदेशवन्धके कथनमे समय प्रवद्धका विभाग आठो मूलकर्मोमें तथा उनकी उत्तर प्रकृतियोमें बतलाया है। दर्शनावरणीय कर्मकी उत्तरप्रकृतियोमें जिस क्रमसे बँटवारा होता है वही क्रम कर्मकाण्डके गद्यसूत्रमें अपनाया गया है। यह वात चारित्र मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोको वतलाने वाले गद्यसूत्रोसे समर्थित होती है। मूडविद्रीवाली प्रतिसे ऊपर चारित्रमोहनीय सम्वन्धी जो गद्यसूत्र दिये गये है उनमें कषायवेदनीयके सोलह भेदोको दो अपेक्षाओसे गिनाया गया है-एक क्षपणकी अपेक्षा से और एक प्रक्रम द्रव्यकी अपेक्षासे । प्रक्रम द्रव्यका अर्थ ५० टोडरमलजी ने