________________
४०६ : जेनसाहित्यका इतिहाग
अपनी टीका जिया-बरि प्रदेश ननागिरी परमाणनि टयाग: तागी अपेक्षा गहिये।' आपणासी गंगा तो जो प्रगिन का यही : रिन्नु उँटयारेगी अपना क्रम मिप जंगा गिगे काागा ____अत' गनिमी की प्रनिग वनगान गणना अवरही कर्म को अगर जोर
नेमिनन्द्रानाशी नि की महित गंग टीका ग गोमा ससात स्पान्तर गरम पाया जाना भी नष्ट गरना । उग को गया गान गनेगे म हिपति की जानी।। २ घन्मोत्यमायाधिकार
इम अधिकाग्मं मना और गरमा गगन f० पा० परसंगरमें भी ग नागगा तोगरा गिर: जो लागी। उगी प्रया गागाका जरा-'यस्यमागग पीमिग निजागर । नेगिगन्द्रागागने अपने नाममा अनुगा उसमे परिपतंग करणे उगेग प्रचार सा है-यस्वगत गरा आगा । गंता गा पागामे तबला अर्थ नहीं किया I
निशिगी दूरी गाया में उनका अर्थ कहा है-'जिनमे गाल गोm frतार गा गटोगगे गगन हो जग भारतको स्तव नाहते है। जिगमे गा गितार या गंगगे पपन हो उने स्तुति कहते है और निगम अगो आमाका गान विग्तार गा गपने हो उगे धर्गकया गहते हैं'। यह लक्षण गवला आधार पर रनित है । वेदना राण के कति अनुयोग सारके गुर ५५ 'यय-युधि-भाग पहा' आया है। धवला'में उसके लक्षण कहे है । उनीपरमे नेमिनमानार्गने एक गायाके वाग तीनो लक्षणोको कहा है। ___ स्तवके लक्षणके अनुगार कर्मकाण्ठन दूगरे अधिकाग्में कर्मोके वन्ध, उदय सत्त्वका गुणस्थान और मार्गणाओगे सर्वांगपूर्ण कथन दिया गया है। ऐसा समझना चाहिये।
सबसे प्रथम बन्धका कथन करते हुए बन्यो चारो भेदोका-प्रकृतिवन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्धका, क्रमश कथन किया गया है। प्रकृति
१ 'सयलगेक्कगेक्कगहियार सवित्थर ससरोव । वणणसत्य थयथुइ-धम्मकहा
होड णियमेण ।।८८-क० का० । २ वारसगसधारो सयलगविसयप्पणादो थवो णाम । वारसगेसु एक्कगोवसघारो थुदोणा म। एक्कगस्स एगाहियारोवसहारो धम्मकहा।'
-पट्स०, पु० ९, पृ० २६३ ।