________________
उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४०३ तियो और नामकर्मकी प्रकृतियोंका कोई नामनिर्देश न करके २७वी गाथामें एकदम १५ सयोगी भेदोको गिनाया है जो नामकर्मकी शरीरवन्धन प्रकृतियोसे सम्बन्ध रखते है, परन्तु वह कर्म कौन-सा है और उसकी किन-किन प्रकृतियोंके ये सयोगी भेद है यह सव ज्ञान नहीं होता । मूडविद्रीकी उक्त प्रतिमें निम्न गद्य सूत्र उक्त दोनो गाथाओके बीचमे पाये जाते है। जिनसे कथनकी सगति बैठ जाती है क्योकि उनमें चारित्र मोहनीयकी २८, आयुकी ४ और नामकर्मकी ४२ पिण्ड प्रकृतियोका नामोल्लेख करनेके अनन्तर नामकर्मके जाति आदि भेदोकी उत्तर प्रकृतियोका उल्लेख करते हुए शरीर बन्धन नामकर्मकी पाँच प्रकृतियो तक ही कथन किया गया है, इससे गाथा न० २७ के साथ उसकी सगति विल्कुल ठीक बैठती है
"चारित्त मोहणीय दुविह कसायवेदणीय णोकसायवेदणीय चेइ। कसायवेदणीय सोलसविह खवण पडुच्च अणताणुवधि कोह-माण-माया-लोह अपच्चक्खाण पच्चक्खाणावरण कोह-माण-माया-लोह कोहसजलण माणसंजलणं मायासंजलण लोहसजलण चेइ । 'पक्कमदव्व पडुच्च अणताणुबधि-लोह-कोह-माया-माण सजलण लोह-माया कोह-माण पच्चक्खाण लोह-कोह-माया-माण अपच्चक्खाण लोह-कोहमाया-माण चेइ । णोकसाय वेदणीय णवविह पुरसित्थिणउसयवेद रदि-अरदिहस्स-सोग-भय-दुगुच्छा चेदि । आउग चउविह णिरयाउगं तिरिक्ख-माणुस्स-देवाउग चेदि । णाम वादालीस पिंडापिंडपयडिभेयेण गयि-जायि-सरीर-बधण-सघादसठाण-अगोवग-सघडण-वण्ण-गध-रस-फास-आणुपुवी - अगुरुलहुगुवघाद - परघादउस्सास-आदाव-उज्जोद - विहायगयि-तस-थावर-वादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसाहारणसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-दुब्भग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जाणादेज्ज-जसाजसकित्ति-णिमिण-तित्थयरणाम चेदि । तत्थ गयिणाम चउन्विह णिरयतिरिक्खगयिणाम मणुसदेवगयिणाम चेदि । जायिणाम पचविह एइंदिय-विइदिय-तीइदियचउइदियजायिणाम पचिंदिय जायिणाम चेदि। सरीरणाम पचविह ओरालिय-वेगुविय-आहार-तेज-कम्मइयसरीरणाम चेइ । सरीरबधणणाम पचविह ओरालियवेगुन्विय-आहार-तेज-कम्मइय-सरीरबधणणाम चेइ । १ गो० कर्मकाण्डकी सस्कृत टीकामें इन सूत्रोका अक्षरश संस्कृत रूपान्तर
मिलता है। उससे मिलान करनेसे तथा सैद्धान्तिक दृष्टिसे भी सूत्रका पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है । टीकाका सस्कृत पाठ इस प्रकार है-'प्रक्रमद्रव्य विभजनद्रव्य प्रतीत्य अनन्तानुवधि लोभ माया क्रोध मानं सज्वलनलोभमाया क्रोधमान प्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमान अप्रत्याख्यानलोभमाया क्रोधमान चेति ।