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४०२ • जैनसाहित्यका इतिहास
३८, कर्मकाण्डकी ५३, त्रिलोकसारकी ५१ ओर लब्धिसार-क्षपणासारकी ४१ है | ये सब ग्रन्थ पूर्ण है । और उनकी पद्यसख्या क्रमश. ७३०, ८७३, १०१८ और ८२० है । ताडपत्रोकी लम्बाई दो फुट दो इच ओर चोडाई दो इच है । लिपि प्राचीन कन्नड है ।
ये तो हुआ प्रतियोके सम्वन्धमें । प्रकृत चर्चाके सम्बन्धमें शास्त्रीजीने लिखा था -- कि कर्मकाण्डमे विवादस्थ स्थल प्रतिमें सूत्र रूपमे है । ओर मुस्तारसाहबको उसका विवरण भी भेजा था। मुख्तारसाहबने पुरातन वाक्यसूचीकी अपनी प्रस्तावनामे उस विवरणके आधारपर जो कुछ लिखा है उसे हम यहाँ दे देना उचित समझते है
'कर्मकाण्डकी २२वी गाथामें ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियोकी उत्तर कर्मप्रकृतियोकी सख्याका ही क्रमश निर्देश है— उत्तरप्रकृतियोके नामादि नही दिये । २३वी गाथामें क्रम प्राप्त ज्ञानावरणकी ५ प्रकृतियोका कोई उल्लेख न करके दर्शनावरणकी नो प्रकृतियोंमेंसे स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियोंके कार्यका निर्देश करना प्रारम्भ कर दिया है । इन २२ और २३ गाथाओके वीचमें निम्न गद्यसूत्र पाये जाते हैं जिनमे ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मोकी उत्तरप्रकृतियोका स्पष्ट उल्लेख है और जिनसे दोनो गाथाओका सम्वन्ध ठीक जुड जाता है -
'णाणावरणीय दसणावरणीयं वेदणीय (मोहणीय) आउग णाम गोद अतराय चेइ । तत्य णाणावरणीय पचविह आभिणिवोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणावरणीय केवलणाणावरणीयं चेइ । दंसणावरणीय नवविहं थोणगिद्धि, णिद्दाणिद्दा, पयलापयला, णिद्दा य पयला य चक्खु अचक्खु - ओहि दसणावरणीय केवलदसणावरणीयं चेइ ।'
२५वी गाथामें दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रकृतियोमेंसे प्रचला प्रकृतिके कार्यका निर्देश है। इसके बाद क्रमप्राप्त वेदनीय तथा मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोका कोई निर्देश न करके २६वी गाथामें एकदम यह प्रतिपादन किया है कि मिथ्यात्व - का द्रव्य तीन भागोमे वँटकर कैसे तीन प्रकृति रूप हो जाता है । मूडविद्रीकी उक्त प्राचीन प्रतिमें दोनो उक्त गाथाओके मध्यमें निम्न गद्यसूत्र है जिनसे उक्त त्रुटि अशकी पूर्ति हो जाती है
' वेदनीय दुविह सादावेदणीयमसादावेदणीय चेइ । मोहणीय दुविह दसणमोहणीय चारित्तमोहणीय चेइ । दसणमोहणीय बधादो एयविह मिच्छत्त, उदय सत पडुच्च तिविह मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त सम्मत्तं चेइ ।'
२६वी गाथाके बाद चारित्र मोहनीयकी मूलोत्तर प्रकृतियो, आयुकर्मकी प्रकृ