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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ३८७ किन्तु यदि प्रभाचन्द्रके द्वारा गुरुस्परो स्मृत महावृतिकार अभयनन्दिका प्रभाचन्द्रके साथ कुछ विद्या सम्बन्ध था तो नेमिचन्द्रके गुरु भी वही हो सकते है और उस स्थितिमें उनके द्वारा 'सटीक' शब्दमे धवलाटीकाका उल्लेस होना ही सभव है । किन्तु अभी इस विषयमें निश्चित रूपसे कुछ कहना सभव नही है । एक अभयनन्दी नामक आचार्यने पूज्यपाद देवनन्दिके जैनेन्द्र व्याकरण पर जैनेन्द्र महावृत्ति रची है। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ कागीमे हुआ है उसमें आरम्भिक द्वितीय श्लोकमें वार्तिककारने अपना नाम अभयनन्दि' मुनि दिया है। किन्तु अपने गुरु आदिका नाम नहीं दिया और न ग्रन्थ रचनाका समय ही दिया । ___अभयनन्दीने सूत्र ४।३।११४ की वृत्तिमें माघकविके गिशुपालवधसे एक श्लोक उद्धृत किया है। माघका समय सप्तम शतीका उतरावं माना जाता है । क्योकि माघके दादा सुप्रभदेव वर्मलातके मत्री थे जिसका एक शिलालेख ६२५ ई० का पाया जाता है।
तथा उन्होने सूत्र ३-२-५५ की वृत्तिमे 'तत्त्वार्थ वार्तिकमधीते' उदाहरण दिया है। इससे प्रकट होता है कि वे तत्वार्थवातिकके रचयिता भट्टाकलकके पश्चात् हुए है।
तथा जैनेन्द्र पर एक 'पचवस्तु' नामकी टीका है उसके रचयिता आर्य श्रुतकीति है। कनडी भापाके चन्द्रप्रभ चरित नामक ग्रन्थके कर्ता अग्गल कविने श्रुतकीतिको अपना गुरु वतलाया है। यह चरित शक स० १०११ (वि० सं० ११४६) में वनकर समाप्त हुआ था । यदि ये दोनो श्रुतकीर्ति एक हों तो अभयनन्दिको विक्रमकी १२वी शतीसे पूर्वका विद्वान मानना चाहिये ।
श्रुतकीर्तिने अपनी पचवस्तु प्रक्रियाके अन्तमें एक श्लोकमें जैनेन्द्र शब्दागम अर्थात् जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी है। मूल सूत्ररुपी स्तम्भो पर वह खडा है, न्यासरूपी उसकी रत्नमय भूमि है, वृत्ति रूप उसके कपाट है । भाष्य शय्यातल है । टीकारूप उसके माल या मजिल है और वह पचवस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी है । उसके द्वारा उस महल पर चढा जा सकता है । १ 'यच्छब्द लक्षण व्यक्तिकरोत्यभयनन्दिमुनि समस्तम् ॥२॥ जै० महावृ०,
पृ० १ । २ ' श्रुतकीर्ति श्रीविद्य चक्रवर्तिपदपद्म निधानदीपवति श्रीमदग्गलदेव विर
चिते चन्द्रप्रभ चरिते-जै० सा० इ०, पृ० ३६ ।। 'सूत्रस्तम्भसमुद्धृत प्रविलसन्न्यासोरुरत्नक्षिति श्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुते भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामालमिहारुरुक्षुरचित जैनेन्द्रशब्दागम प्रासादं पृथु पचवस्तुकमिद सोपानमारोहतात् ॥'-जै० सा० इ०, पृ० ३३ ।
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