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३८८ : जेनसाहित्यका इतिहास
इगमें निर्दिष्ट वृत्ति तो अभयनन्दिात वृत्ति है। और न्याग मायद पूज्यपायात ही हो।
जनेन्द्र व्याारण पर प्रभानन्द्राचार्य कृत 'गन्दाम्भोज भाम्फर' नामक एक न्यास गन्य वम्बईके सरस्वती भवनमें वर्तमान है जो अपूर्ण है। उसमे तीसरे अध्यायको अन्तके एक पलोकम अभगनन्दिको नमग्कार किया है तथा महावृत्तिके गन्द ज्योंके त्यो लिये गये है। इस रगिता आनार्य प्रभानन्द्र चे ही प्रतीत होते है जिन्होने प्रमेयकमल मार्तण्ड और न्याय मुर की रचना की थी।
प्रभानन्द्रका समय न्यायाचार्य प० महेन्द्र कुमारजीने ९८०३० से १०६५ तक निर्णीत किया है । अत अभयनन्दिका उनमे पूर्व होना निश्चित है।
श्री नेमिचन्द्राचार्यका समय भी ९८९ ६० के लगभग है । अत उनके गुरु अभयनन्दिका समय भी उमीके लगभग उसने कुछ पूर्व होना चाहिये । यदि यह अभयनन्दि ही महावृत्तिको रचगिता हो तो महावृत्तिका रचनाकाल विक्रम म० १००० और १०५० के मध्यमे होना नाहिये । श्री युधिष्ठिर मीमासकने अपने 'गस्थत व्याकरणका इतिहास' में उस एकताको गभावनापर ही महावृत्ति के रचयिता अभयनन्दीका काल विक्रमको ग्यारहवी शताब्दीका प्रथम चरण मार कहा है।
श्री नाथूरामजी प्रेमीने 'जनेन्द्र व्याकरण और आनार्य देवनन्दी' शीर्षक अपना नियन्त्र प्रथमवार जै० सा० ग०, भा० १ अकमे प्रकाशित कराया था। उसमें उन्होंने लिखा था-'हमारा अनुमान है कि चन्द्रप्रभ काव्यके कर्ता महाकवि वीरनन्दिने जिन अभयनन्दिको अपना गुरु बनाया है ये चे ही अभयनन्दि होगे। आचार्य नेमिचन्द्रने भी गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ४३ध्वी गाथामे इनका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय विक्रमकी ग्यारहवीके पूर्वार्धके लगभग निश्चित होता है।'
किन्तु जै० सा० इ० में उन्होने अपने उस लेसमेंसे उपर वाला अश निकाल दिया है।
परन्तु प्रभाचन्द्रके न्यासमें जो श्लोक है वह उक्त अनुमानका पोपक प्रतीत होता है । श्लोक इस प्रकार है
नम श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने ।
प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने । इसमें आगत 'तस्मै अभयनन्दिने गुरवें' पद महत्वपूर्ण है, जो इस सन्देहको पुष्ट करता है कि प्रभाचन्द्रने अभयनन्दिसे शायद अध्ययन किया था । यदि ऐसा हो तो वे अभयनन्दि नेमिचन्द्राचार्यके गुरु ही हो सकते है ।