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३८६ : जेनगाहित्यका इतिहास
अस्तिल था और दोनो आगगन जीवनका बावर्ग माना जाता था। 'सटीक मधीते' गे जिग टीम जलेग है यह पबला टी नहीं हो गानी क्योंकि उसी रनना धीरगनने ८१६६० में भी। श्रुतावतारी अनुगार महाामपान पर आगार्ग गुनगुन्दने भी पानी प्रागनटीका लिपीगी जो ग गमय अनुपलब्ध है। गभगत नही टीका प्रागन और बन्मने गाय पी जाती थी।'
पटर साहलगा उगन अनुमान हगे भी गगत प्रतीत होता है। पुष्पदन्त और भूनलिने जिग महार्ग प्रागृततो पदमागमो मे उपगहत रियामा गम्भवत प्रानगे उगीका ग्रहण वृत्तिसग्ने गिया। 'गबन्ग' और 'मटी' पदोशनी बातगा मगर्यन होगा कि बना भगवा महावन्य उगी अन्तर्गत अन्तिग गए और उनीको टीका लगेरे हाग रनी गई थी। गिन्तु प्राभूतगे पदगण्यागग 'गवन्न' प प्रगोग विगैप मर्ग गगता है। बना तो पदगणागमा ही : अत 'प्रागन' में पटगगमका गहण करनेपर बना भी गहण होली गाना पुन 'गा' कहना गुरु विग म रगता है। जो बननाता है कि महावृतिमी रमनागे अन्तिम गठ बन्ग पदगडागममे जुन हो गालगा । उनीगे 'गाय' में उगा गहण किया गया है।
न्ट नन्दिने अपने भुतारतारंगे लिगा है गि-'यप्पदेव गुग्ने पट्यण्डने महापनाको पगारिया। और गाग्याप्रमाप्ति नामा छ गण्डको मक्षिप्त करने उगमें मिलाया । उनी न्याग्गा प्राप्ति प्राप्त करके वीरमेन स्वामीने रातोर्ग नाम छ गण्डकी राना की और उगे पान गयोमें मिलाार छ सण्ड पूरे किये।
अत वप्पभट्ट स्वामीने गहावन्या गटाण्डागममे पृथक् कर दिया था। तथा वीरगेन स्वामीने भी उगे पृथए ही रगार सत्कर्म नामक नया पण्ड रचकर उसमे मिलाया था जो धवलाका ही अंगभूत है। अत 'सबन्ध' पदमे इतना स्पष्ट है कि वप्ण्देवके पश्चात अभयनन्दि हुए है। किन्तु वप्पदेवका समय भी ज्ञात न्ही है। परन्तु श्रुतायतारके अनुसार वे वीरसेनके गुरु एलाचार्यसे पूर्व हुए है। उनके और 'एलाचार्यके वीचमें श्रुतावतारमं किसी अन्य व्यारयाकारका निर्देश नहीं किया गया है । अत विक्रमकी गातवी शताब्दीके लगभग उनका काल माना जा सकता है। अत अकलकके पश्चात् होनेवाले अभयनन्दिका 'मवन्ध और सटीकम्' लिखना उचित ही है।
डॉ. अग्रवाल साहबने यद्यपि अभयनन्दिका कोई निश्चित समय नही लिखा तथापि वे उन्हें धवलासे पूर्वका विद्वान् मानते है इसीसे उन्होने 'सटीक' पदसे धवलाटीकाका ग्रहण नहीं किया।