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________________ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ३७९ दोनो ही स० पचसग्रहमे एक उल्लेखनीय बात और भी है। प्रा०' पचतथा स० पचसग्रहमें योगकी अपेक्षा गुणस्थानोमें मोहनीयकर्मके उदय स्थानोके भंग १३२०९ बतलाये है और कर्मकाण्ड में १२९५३ बतलाये है। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें छठे गुणस्थानमें आहारकका उदय स्त्रीवेद और नपु सकके उदयमें नही माना गया। अत छठे गुणस्थानमे भग पचसग्रह की अपेक्षा २११२ होते है और कर्मकाण्डमें १८५६ होते है इस तरह २५६ का अन्तर पडता है। ___इसमें उल्लेखनीय बात यह है कि दोनो ही स० पचसग्रहमें प्रथम अध्यायमे एक "श्लोकके द्वारा इस वातको स्वीकार किया है कि आहारक ऋद्धि, परिहार विशुद्धि, तीर्थकर प्रकृतिका उदय और मन पर्ययज्ञान ये स्त्रीवेद और नपुसकवेदके उदयमें नही होते । फिर भी आगे प्राकृत पञ्चसग्रहके अनुसार ही मोहनीयके उदय विकल्पोंका कथन किया गया है । ___ सप्ततिकाके पश्चात् इस स०प० स० में चूलिका भी है और उसमें ८४ श्लोकोके द्वारा मार्गणाओमें वन्ध स्वामित्वका विशेष रूपसे कथन है । इसके प्रारम्भ में कहा है कि यद्यपि आठकर्मोंकी सव प्रकृतियाँ १४८ है किन्तु उनमेसे अठाईसको बन्धमें नहीं गिना जाता है। वे है–सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, पाँच बन्धन, पाँच सस्थान और रूप रस गन्ध स्पर्शके भेदोमेंसे केवल चार मूल भेदोको छोड कर १६ । अत वन्ध प्रकृतियाँ एक सौ बीस है। इनके बन्ध अवन्ध और बन्धव्युच्छित्तिका कथन चौदह मार्गणाओमें किया है। कर्मस्तव अधिकारमे गुणस्थानोमें तो कथन है कि किन्तु मार्गणा स्थानोंमें नही है । यह चूलिका प्रा०प० स० में नही है। किन्तु अमितगतिके पचसग्रहमे है । १. तेरस चेव सहस्सा बे चेव सया हवति नव चेव । उदयवियप्पे जाणसु जोग पडि मोहणीयस्स ॥३३७॥ -प्रा० पचसग्रह, अ०५। 'मोहनोदयभगा ये योगानाश्रित्य मेलिता । नवोत्तरशते ते द्वे सहस्राणि त्रयोदश ।।७४२॥ -स० ५०स०, पृ० २०७।। २ तेवण्ण णव सयाहिय वारससहस्सप्पमाणमुदयस्स। ठाणवियप्पे जाणसु जोग पडि मोहणीयस्स ॥४९८॥'-गो० कर्मकाण्ड । ३ कर्मका०, गा० ४९६-४९७ । ४ 'आहारद्धि परीहारस्तीर्थकृत्तुर्यवेदनम् । नोदये तानि जायन्ते स्त्रीनपुसक वेदयो ॥३४३॥'-अमि०स० प०स०, पृ० ४७ । आहारद्धि परिहारो मन पर्यय इत्यमी । तीर्थकृच्चोदये न स्यु स्त्रीनपुसकवेदयो । -डड्ढा पृ० ११२५५ ।
SR No.010294
Book TitleJain Sahitya ka Itihas 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages509
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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